कविता कोनीं
धरती री
फाड़’र कूख
चाणचक उपड़्यो
भूंफोड़!
कविता कोनीं
खींप री खिंपोळ्यां में
पळता भूंडिया
जका बगत-बे-बगत
उड जावै
पकड़ बांपड़ो
अचपळी पून रो!
नीं है कविता
खेत बिचाळै
खड़्यो अड़वो
जको ना खावै
ना खावण देवै।
कविता सिरजण है
जीवण रो!
अणभव री खाद सूं
सबदां रा बीज भरै
नवी-नकोर
आंख्यां री क्यारी में
सुपनां रा
निरवाळा रंग।
अबै बताओ सा...!
कींकर कम है
सिरजणहार रै
सिरजण सूं
कवि रो रचाव...।