कांई फरक पड़ै है
बंद अर खुली मुट्ठी मांय?
आकाश तो —
उतणो ही समासी
जितणो’क हिस्सै मांय
आयोड़ो है।
मांडल्यो चाहे
कितणा ही मांडणा
हिवड़ै रै आकाश पै?
पण
बै भी लखावै
जाणै
गरीब री झूंपड़ी मांय
अेक
दिवलो टिम-टिमावै
जिण नैं फगत निरखता रैवै
दूरां सूं ही
खड़्या-खड़्या।