उण दिन

किणी रै सिधावतां

म्हारी जळजळी आंख री कोर सूं

टपकण नै उतावळा टोपा नै

किणी नीं देख्यौ

नीं जगती, नीं जगदाधार

जिण नै होळेसीक अंवेर

म्हैं छांनेसीक धर लियौ ओळूं में

नीं, नीं सपना में

कै पछै सोच में

पछै वौ प्रगट्योड़ौ लाधौ

म्हनै म्हारी कविता में

देखतां उणनै

ठेठ मांय तांणी धुजग्यौ

अर कण-कण रौ वासी वौ अंतरजामी

म्हारै अेन पाखती ऊभौ

देख्यां कर्‌यौ म्हनै थरहरतौ

रूंख बायरै डोलता रह्या

नंदियां बैवती रही आपरी ढांण में

इळा अबोली फिरती रही आपरी धुरी माथै

सूरज नै खुली आंख्यां कीं नीं दीस्यौ

व्हाला पाठकां!

म्हनै ठाह है

थांनै अवस टिपेला

आपरा फूटरापा सागै लोयांझाळ वौ टोपौ

पण कांपज्यौ मत ना

म्हैं वठै थांरै सागै इज व्हूंला

कोई काळबेलियौ

आपरौ सांप पकड़तौ व्है ज्यूं

म्हैं भचकै उण नै उठाय

पाछौ आपरी आंख ताळकै करतौ निगै आवूंला

‌अेक कवि री आयस

इत्तीज व्है

जित्ता में वौ आपरा

ढळक्योड़ा आंसू नै हेर

पाछौ आंख नै संभळावै

अर अबोलौ व्है जावै!

स्रोत
  • पोथी : हिरणा! मूंन साध वन चरणा ,
  • सिरजक : चंद्रप्रकास देवल ,
  • प्रकाशक : कवि प्रकासण, बीकानेर
जुड़्योड़ा विसै