म्हारै सुपनां नै

आपरो जाण’र

भोत चाव सूं

पूरा करता हा

म्हारा पिताजी।

बां सुपनां री

कांई-कांई कीमत देंवता

म्हारै सूं

कीं भी नीं लेंवता

म्हारा पिताजी।

सो-कीं चुपचाप

आपरै मांय राखता हा

म्हारै सूं कीं नीं कैवता हा

म्हारा पिताजी।

जे म्हैं कैवती चांद

स्यात बो भी ले आवता

जे आज हुंवता

म्हारा पिताजी।

स्रोत
  • पोथी : ऊरमा रा अैनांण ,
  • सिरजक : अंकिता पुरोहित ,
  • संपादक : हरीश बी. शर्मा ,
  • प्रकाशक : साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली ,
  • संस्करण : प्रथम
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