घोर अंधारी रात

नीं सूझै हाथ नै हाथ

बैठी जोवूं बाट

म्हारा चांदड़ला री

चांवू उणरौ

निरमळ ऊजळ चांदणौ

जकौ भर देवै

म्हारा अंतस में उजास

वपराय देवै ठाडोळाई

कळझळतै काळजै

अंगेज म्हनै।

पण अै कुण बैठाय दीना पौ’रा

उजास माथै.?

ओय.! कितरी अंधारी रात.!

कदास, अमावस इणी नै कैवै

पण तौ परवा नीं करूंला

अमावस थारी

संतायलै भलांई थूं कितरी

लागोड़ी रैहसूं

उडीक में उणरी अपलक

क्यूं कै भरोसौ है म्हनै

कै हर अमावस रै पछै

हवळै-हवळै, बींद पगलिया भरतौ

हरखातौ

आवै है चांदणौ अवस

म्हनै तौ बस राखणौ है

फगत इतरौ चेतौ

करणौ है फगत

इतरौ जतन कै

जद चांदड़लौ

पूनम बण छितरै आकास

आपरा ठाडा चांदणा साथै

उण घड़ी, उण बेळा सूं

पैलां-पैलां

बाढ देणां है सगळा खेजड़ा

ऊभा च्यारूंमेर

ताकि, उणसूं दरस कर

अेकमेक हूवण री म्हारी

उडीक रै बिचै

नीं सकै कोई खेजड़ौ।

स्रोत
  • पोथी : आळोच ,
  • सिरजक : डॉ. धनंजया अमरावत ,
  • प्रकाशक : रॉयल पब्लिकेशन, रातानाडा, जोधपुर (राज.) ,
  • संस्करण : प्रथम
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