पूरब जाता बीरा भोळा,

रुकतो जाजे म्हां की पोळां,

दान्यां को दरबार म्हारै सासरिये।

मनख्यां की मनवार म्हारै सासरिये॥

न्हाती हो सरवर में किरणां,

हंसती गाती दीखै हरण्यां।

फूटी हो गारा की डळियां,

चटकी हो बूळ्यां की फळियां।

तीरां बखर्‌यां जळ का मोती,

ओस कळ्यां का मूंडा धोती।

पूरब सूं छूटै पिचकारी,

रंग दे बादळियां की क्यारी।

गळियां की पुचकार म्हारै सासरिये।

दान्यां को दरबार म्हारै सासरिये॥

खेतां जाती दोर जठ्यांण्यां,

हाथ भर्‌या को घूंघट ताण्यां।

माथा पै मक्का की रोटी,

लच्छा गुथी लटकती चोटी।

कांख दबी पाणी की झारी,

जळ सूं भीजी चूनड़ सारी।

घेरदार घाघरियो छोटो,

कोरां पै कोटा को गोटो।

सणगार्यो सणगार म्हारै सासरिये।

दान्यां को दरबार म्हारै सासरिये॥

राठोड़ां का टाबर टूबर,

खेलै खेल चूंतर्‌यां ऊपर।

आंगण मैं बैठी कोराणी,

होठां हंसी नैण मैं पाणी।

रोज्ये मत तू ऊं कै आगै,

जीं सूं सोयो दुख न्हं जागै।

ऊं नैं ईं धरती की खातर,

दियो सुवाग खुसी मन मैं भर।

पुज गई बारंबार म्हारै सासरिये।

दान्यां को दरबार म्हारै सासरिये॥

स्रोत
  • पोथी : सरवर, सूरज अर संझ्या ,
  • सिरजक : प्रेमजी ‘प्रेम’ ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी भाषा साहित्य संगम अकादमी ,
  • संस्करण : Pratham
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