अर, कईं तूं हाल जावै, म्हारी माता?

हूं तो जीवूं अर तन्नै बधायां मेलूं,

सिंझ्या री निराळी रोसनी भल

थारलै घरिये उतरती झेलूं।

बै मनै लिखै, तूं सोच करै, मावड़ी,

पूत री खातर झुरती रै बिलमाय

बोदी जाकट पैर्‌यां घणबार दीसती,

मारगिये उडीकै जद काम निठ जाय।

बैंगणिया छांवां में गोधळू वेळा रै,

दिरस सूं डरपती, तूं आगै बध्यां जाय

मनैं तूं सराय रै मांय बड़तो जोवती

साथीड़ो म्हारै काळजै दे छुरो पैराय।

थ्यावस राख मावड़ी, तो है मातर

उथफ्योड़ै जीव रो अेक जंजाळ

ना हूं इसो पाणी पियो अर ना हूं राकस

जिको थारै गळै लाग्यां बिना मर जाय।

व्हाली घणी लागै मनैं कंवळी तूं नित-नित

अेक म्हारी आसड़ी, अेक म्हारै मनां,

म्हारै ईं ताव में थारो ले सायरो

पसवाड़ै बीं हेत री चेत्यां जाय झळां।

आस्यूं जद बागां में, कळियां चिटक्या कर

कुंजां में मींझरां झरती जद जावै

बरज्योड़ै सुखां रो स्वाद लियो पैली

म्हारी बै अूरधगामी सगत्यां नैं गमावै।

अबै मत बणा मनैं फेरूं तूं निरमळो

गयो जिको गयो—रैयो नित नित अदीठो।

फकत अेक तूं म्हारी सगती अर खुसियाळी

फकत अेक तूं म्हारो च्यानणो बूठो।

इण सूं मत ना हुवै व्याकळ अे मावड़ी,

मत झूरै थारै ईं पूत री खातर

मतना फिरै थारी ईं बोदी जाकट में

मारगिये माथै जद कामड़ो जाय पुर।

स्रोत
  • पोथी : लेनिन काव्य कुसुमांजळी ,
  • सिरजक : सर्गेइ येसेनिन ,
  • संपादक : रावत सारस्वत ,
  • प्रकाशक : राजस्थान भासा प्रचार सभा (जयपुर) ,
  • संस्करण : प्रथम संस्करण
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