नळ

जद थूं रीतो होवे

तो नसांसा न्हांके।

थारी हाय पड़बा रा

डर सूं, लोग थारो

मूंडो बंद कर न्हांके।

पण जदै थारो दरद

पाणी बण’र आंसू री जियां

झर-झर टपकबा लागे

तो लोग,

थारे आडी झांके

थारो मूंडो खोले

या कीं बात है?

नळ सींसाड़ो भरतो बोल्यो—

या तो जग री रीत है,

आज दूजा रा दरद नै

कोई सुणबो कोनी चावे

पण कोई ने रोतो देख’र

मजो देखण वाळा

कितरा ही मिल जावै…।

स्रोत
  • पोथी : अणकही ,
  • सिरजक : कैलाश मण्डेला ,
  • प्रकाशक : यतीन्द्र साहित्य सदन (भीलवाड़ा) ,
  • संस्करण : प्रथम संस्करण
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