कटता देख’र

रूखां नै

झरता देख’र उण रा

हरियल पानड़ा

अेक कीड़ो जुळबुळावै

म्हारै माथै मांय

समझाऊं किण नै अर कियां?

कोई

चा’वै नीं समझणो

लागै इयां कै

लुट रैयी म्हारी अेक-अेक सांस

जाणो आप म्हनै?

नईं?

म्हें बताद्यूं—

म्हैं हूँ मानखो आखो!

स्रोत
  • पोथी : इक्कीसवीं सदी री राजस्थानी कविता ,
  • सिरजक : संजू श्रीमाली ,
  • संपादक : मंगत बादल ,
  • प्रकाशक : साहित्य अकादेमी ,
  • संस्करण : प्रथम संस्करण
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