दिन उगतां ही,

खुद रै हाथां री,

रेखावां देखण सूं,

दु:ख कीं घट ज्यावै

माँ कैयो हो,

पण म्हारी माँ...

डूंगर रा डूंगर ढ़ोवंतै,

मिनख रै माथे सूं,

एक डगळियो

उतार लेवण सूं,

कांई फरक पड़ैला?

एक बात ही

जकी माँ म्हने कैयी,

एक सुवाल हो,

जको

म्है माँ नै पूछ्यो

पण कैयोड़ी बात

अर पूछ्योड़ै

सुवाल रे बिच्चै,

एक नाजुक सी चीज

और भी ही

म्हैं लंगूलग

डूंगर रा डूंगर—

खुद रै कांधा ऊंचतो रेयो,

अर माँ हर बार

कांकरी-कांकरी बोझ उतारती रैयी!

म्हारै कांधा सूं

स्रोत
  • सिरजक : कृष्ण कल्पित ,
  • प्रकाशक : कवि रै हाथां चुणियोड़ी
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