जनम्याँ पच्चीस बरस होगा, बारा हो गया जवान हुयाँ,

दस बरस बीतगा दादा का हाथाँ सैं म्हारो दान हुयाँ।

पण, पालै पड़ी अस्या बर कैज्यो घर-परदेस बराबर छै,

ज्यूँ मुनी म्हात्मा रैता हो, प्रापत गीता को ग्यान हुयाँ।

वै सावण मैं सूख्या न, भादवा मैं वाँपर छाई बहार।

मैं होळी खेली एक बार॥

उय्यां तो वाँकै कोई भी तींवार मनाबा की चिड़ छी,

चोखी-सी पैरबा की चोखी-सी खाबा की चिड़ छी।

कोई भी लाइ-लागतीकाँ कै आबा-जाबा की चिड़ छी,

दुख मैं तो रोबा की चिड़ छी, अर सुख मैं गाबा की चिड़ छी।

सारा ही बार-तिंवाराँ मैं वै करबो चावै छा सुधार।

मैं होळी खेली एक बार॥

वै अपणा मन की खी कदे नै सुणी प्रेम सैं म्हारी ही,

मैं अस्यो ब्याव करबा सैं तो चोखी छी अखन कँवारी ही।

गणगोर-तीज पूजी कदे पूजी कदे फतवारी ही,

जोया दिया दिवाळी का, छोड़ी कदे पिचकारी ही।

यूँ बीत गई म्हारी ऊमर आधी सैं ज्यादा बिना सार।

मैं होळी खेली एक बार॥

वै दीया देख दिवाळी का मन-हीं-मन कुढ़बा लागै छा,

बाज्याँ होळी का चंग, रंग-सा वाँका उड़बा लागै छा।

जीं भगत जमानू नाचै छो, मैं बैठी सोग मनावै छी,

जीबा सैं मरबा कै ओड़ी म्हारा पग मुड़बा लागै छा।

वै काँई ढंग सुधारैला, यो ही करती रै छी विचार।

मैं होळी खेली एक बार॥

मैं हो'र आखती एक बार वाँनै यूँ समझाबा लागी,

“जिद राम सब तरैं राजी छै, थे क्यूँ बण बैठ्या बैरागी?”

वै पूछी-“तू काँई खै छै?” मैं बोली—“ल्यो, होळी खेलाँ।”

सुणताँईं वाँका पगाँ तळा सैं धरती निकळ दूर भागी,

आँख्याँ मैं रोस भर'र मूँनै वै गाळयाँ काढ़ी तीन-च्यार।

मैं होळी खेली एक बार॥

मैं खी'क आँगळी सीधी सैं घी जम्यू निकळणू ही कोनै,

सोनू गळ बिना सुहागा कै साँचा मैं ढळणू ही कोनै।

जिद तलक सेर नै सवा सेर, ऊपरलो पाट मिल जावै,

जिद तक कोई भी मिनख आपकी जिद सैं टळणू ही कोनै।

देखूँ छूँ देखाँ कद तांईं थे मनास्यो कोई तिंवार?

मैं होळी खेली एक बार॥

मैं टूँटी का मूँडा मैं ही स्याही की टिकिया ठूँस्याई,

अर बची-खची बारीक पीस वाँका बाळाँ मैं भुरकाई।

वै व्हा'र बारणै निकळ्या तो मैं काच लियाँ ऊबी लादी,

वै सरमागा, तसबीर असल जिद ऊमैं वाँकी दीख्याई।

वै पूछी—“काँईं समझै छै मूँनै साँच्याँईं रँग्यो स्यार?”

मैं होळी खेली एक बार॥

मैं हाथ जोड़ खैबा लागी, “थांनै कुण खै छै रंग्यो स्यार?

ज्यो खै ऊँकी ही जीब खींच ल्यूँ पकड़ चीमटा सैं अबार।

धन-धन धरती, धन-धन भारत, धन राजस्थान नगर जैपर,

धन म्हारो घर'र घुसळखानू जी मैं जनम्याँ बारावतार।

द्यूँ फैंक आपका चरणाँ पर तन-मन-धन-जीवन प्राण वार”।

मैं होळी खेली एक बार॥

या बात असी चुभगी वाँ कै ज्यूँ दाज्या पर पड़ जाय लूण,

माँथो यूँ चकराबा लागगो ज्यूँ फिरै लाव की लैर भूण।

बोल्या'क नार नै होती तो मोट्यार मोक्ष पद पा जातो,

नर का नाकाँ की बण नकेल निपजी छै जग मैं नार जूण।

नारी सैं तो नर ही काँई, सुर-मुनि-किन्नर तक गया हार।

मैं होळी खेली एक बार॥

स्रोत
  • पोथी : चबड़का ,
  • सिरजक : बुद्धिप्रकाश पारीक ,
  • प्रकाशक : प्रमोद प्रकाशन मन्दिर, जयपुर
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