क्यूं ठहरग्यो तू

म्हारी या

दसा देख’र बी...?

कांई सगपण छै

थारै म्हारै बीच

खड़ जातो तू बी

ओरां की नांई

म्हारा माथा पै

पग देतो

तू बी तो खड़ जातो

म्हारा डील नैं

छूंत’र…

कांई मतलब छै

यूं ठहर’र

अेकटक निरखबा को

क्यूं उतर जाबो चावै छै

म्हारा रूम-रूम नैं

भेद’र

ऊंडै काळज्यै...!

कोयनै सीतळ चांदणी

बळबळती लाय

भभकै छै अठी

फेर बी

क्यूं ठहरग्यो तू

म्हारी या

दसा देख’र बी...?

स्रोत
  • पोथी : राजस्थली लोकचेतना री राजस्थानी तिमाही ,
  • सिरजक : सी. एल. सांखला ,
  • संपादक : श्याम महर्षि ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी साहित्य-संस्कृति पीठ