कविता नीं है प्रळै-काळ रौं रुंख
जिकौ अवतारां री पगथळियां तळै पसरै।
कै भूख-बिखै रै देस में
जित गावै गढ़-किलांरा।
कविता तौ ‘झरझर कथां’ कबीर री।
थर में सेवण भुरट सागै
डग भारती ‘गोडावण’
डहकती, गोळयां बिच्चै जूण गुजराती।
कविता अेक फकीरी
अंगूठा बतावती सीकरी नै
‘उतरादू-काजळिया काळायण है कविता।
जिणनै देख बांच गांव नाचै।
नगर हांफळै।
कविता —परझळती ‘झळ’।
‘बेटौ बढई’ रौ
जीयाजुण री कोरणी कोरै पूरी चूंप।
गुजारै —‘फाट्योड़ी जेबां सूं एक दिन’।
मांडै —सबदां सूं मखमल मांडणां।
रचै —आखर में ‘बाघो भारमली।’
भर लेवै —'बांथां में भूगोळ।’
कविता — ‘अंधारपंख’ री कूंत।
हां केई मिनखां सारू
फगत ‘कोरौ इन्द्रजाळ’ है कविता।
म्हारी नजरां में
‘कोरो तीखौ सवाल है कविता’।