हिया मैं हलोळां जद लेबा लागी हचकी,

ओळ्यूं-दोल्यूं कानां मैं पड़ी थांकी टचकी,

भोळो-भाळो जीवड़ो पंख पसार,

उड़’र उतरग्यो डूंगर पार।

कतनी बार, कतनी बार।

पहर्‌यो थांनै लहर्‌यो मन बादळी को ठहर्‌यो,

सरम्यां मरग्यो चांदो होस चांदणी नैं नंह र्‌यो।

आंख्यां की कोरां पै जद खींच्यो मोटो काजळ,

आंथूणी दिसा मैं भेळा होग्या संदा बादळ।

नथड़ी मैं नथ लीनो सारो तारामंडळ,

बाळां बीचै बांध्यो थांनै अंधेरा को जंगळ।

कांचळी की कसणां मैं डूंगर कसग्या।

छाना-मूना रह जावां जिया ईं समझा’र

कतनी बार, कतनी बार॥

राखड़ी मैं राखी होगी म्हां को भी तो सीर,

नैणां मैं मंडी तो होगी म्हां की तसबीर।

हींगळू मैं उघड़्यो तो होवैगो म्हां को नांव,

मंहदी हाळा पगल्या आता होगा म्हां कै गांव।

आझंक्या मैं खुल-खुल जाती होंगी मीठी नींद,

पाका रंग का सांवरिया मन मोवन भोळा बींद।

घुटकां ले-ले पीता होगा बछोवां को जहर,

ढळती संझ्या, काळी रातां सातूं-आठूं पहर।

आंगणा का आता होगा पोळ नैं बच्यार।

कतनी बार, कतनी बार॥

स्रोत
  • पोथी : सरवर, सूरज अर संझ्या ,
  • सिरजक : प्रेमजी ‘प्रेम’ ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी भाषा साहित्य संगम अकादमी ,
  • संस्करण : Pratham
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