अेक आंक,

दोय आंक

तीजो तो लिखणो नीं आवै

जद म्हैं म्हारै

मन री लिखूं

हाथ धूजण लागै

कांई म्हैं सोचूं

अर कांई म्हें बिसरावूं

म्हारै मन री सगळी लिख देवूं

वै सबद कठै सूं लाऊं?

मुंडै सूं क्यूं नीं नीसरै

डरता-सा सबद

म्हारै होठां फड़कै

हिवडै रा दोय टूक होयग्या

अमूझतो-खीजतो

काळजो धड़कै धक-धक

अळसायो मन,

किण नैं दिखावूं

म्हारी सगळी बातां कैय देवूं

वै बोल कठै सूं लावूं?

उधाड़ देऊं

दरद रो चदरो,

खिंडावू सगळा रा सगळा

आंख रा मोती

हाथ बंध्योड़ा

चुप रो ताळो

खोल परै बगावूं

पण करणै री

वा बांक कठै सूं लावूं?

स्रोत
  • पोथी : मंडाण ,
  • सिरजक : सिया चौधरी ,
  • संपादक : नीरज दइया ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी ,
  • संस्करण : Prtham
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