जांवता हा
दादोसा दरबार अन्नदाता रै,
छठै चौमासै
करणै सारू जुहार
हाथ में चांदी रो रिपियो झाल।
करता हा, कड़तू झुका-
''खम्मा घणी दाता! सांवठा सूरज
धरती रा
तपो राज थारो चोखंडै''
राखता चांदी चरणों में।
जांवता हा बापू
गोरड़ी गाय रै टटकै घी सूं
लदपद लाडू संधीणै सारू
कटियो खण...
छींकी देय म्हारै मूंढै
कोठी धूण घाल गोडा में
राज री नींद रा खर्राटा
सीकारता लाडू
आधी आंख्यां खोल।
जाणो पड़ै मन्नै ई
उणी दिस जठै
कुरस्यां उडीकै
जमींदोज हुंवती आंख्यां
दोवड़ी हुई कमर
आज ई कायम है
दरबार.
रीपीयो..
नीचा भोड...
मीठै री डब्यां रा धुरकोट
के बदळ्यो,
कियां बदळ्यो...
कुण जाणै?