बैरण बणगी बादळी,

तज मरुधर रो हेत।

बा कुलक्खणी कामणी,

निजर झपेटो देय,

कदे पाछी बावड़ी।

बसन्त पधार्‌या पावणां,

किण विध भेंटू आय।

ना फोंगा फूली फूटरी,

झुर-झुर रोवे खेत।

चुल्हा तो चौपट पड़या

चूण कुण्डाळी चाटगी।

सरवर हेत निवेड़ग्या‌—

पापी पणघट नीर।

तूं क्यों बिलखो बावळा

अठै है मनुहारा री रीत।

खूंआ ऊंझ फरोळ

बीजां री बाटो करी।

पछुवा पुरखै आज

मरुधर मोरे थाळ।

कांटा—कांटा तन कियो,

थारे खातिर थोर—

फूल खिलाया बालमा।

जीवन रो जेवड़ी

म्हारी तो म्हें खींचस्या

तूं बसन्त के जाणसी

किण पर आयो पावणो।

स्रोत
  • पोथी : जागती जोत अक्टूबर 1981 ,
  • सिरजक : कृष्ण विश्नोई ,
  • संपादक : चन्द्रदान चारण ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी भाषा साहित्य एवं संस्कृत अकादमी, बीकानेर
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