रात-दन
भोगूं छूं
एक हडूडो
सोच-बच्यार को!
बच्यार आवै छै
कुस्तमपछाड़ा होवै छै
सूगली सीक हांसी हांस’र
चली ज्या छै
ठोस निरणै खडै
तो कविता मांडूं।