इतरो

मौवणो दरसाव!

बो

बिगसग्यो

कंवळ दांई...

सगळो दरसाव

आंख्यां में

भरग्यो!

सूरज री

सैळास लैरां नै...

समदर

ऊंघ'र

सोयग्यो

नचींतो हुय'र!

कितरो सकून

कितरो अपणेस

साव सैंधोपण

झिळझिळ-मिळमिळ!

सागर री हबोळां मांय

माखरण-मुख धोवै सूरज

लुळ लुळ

खिलकटिया करतो

छांटां सूं

मोद में मुळकै!

ओहो!

सुख!!

इतरो सुख!

सौवणो-मौवणो

हूं, आकळ-बाकळ हुयग्यो

किणी बीजै री निजर नीं पड़ै

इण पर!

मेरो है

फगत मेरो...

हूं कूदग्यो

समदर मांय

चाणचक!

पण,

के?

कीं नीं

कोरा सिंवाळ!

उळझग्यो...

हाथ-पग पटक्या

कियां बचूं

कांई करू?

जीव

ध्यारी में

आयग्यो!

जटायु री दांई

तड़फण लाग्यो

ओहो!

हूं कांईं करियो?

सुख नैं

सच नैं

लेवण आयो

फगत खुद खातर!

स्रोत
  • सिरजक : बाबूलाल शर्मा ,
  • प्रकाशक : कवि रै हाथां चुणियोड़ी
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