खूटै बँध्या बैल डकरावै,

ऊण्यै खूण्यै हळ हकळावै

ऊँघ भरी खेत क।

खीजी दादी डाँट लगावै,

छोरा छोरी दाँत दिखावै,

माथो कूटै दादी दुखिया

भुक़्का मारै पेट क—ऊँध भरी खेत क।

फाटो कथल्यो टूटी खाट;

चरमरती मंगरा की लाट,

ताळ भरी मा छाँ की बास

आगणम मं को भर्‌यो उजास

दो दन पाछै पड़ी दराड़ाँ

बणता बणता सेत क—ऊँघ भरी खेत क।

टूटी दावण झूल्यो बाण,

ढूंड्यो बणगी झुकी कमाण,

नैण अँधेरों टूटी साँस,

पै’ री तरै डूबग्यो बाँस

पाड़ा की सब भैस जा बुजी

बाड़ै, बड़ा लठैते क—ऊँध भरी खेत क।

छोड़ कराड़ो मेंढ़क भाग्या

सड़कां प’ टर्राबा लाग्या

नागां क’ घर बासा होग्या

समझदार का तासा होग्या

राखी तागो बंधतो दीखै

अब बळबळती रेत क—ऊँध भरी खेत क।

स्रोत
  • पोथी : जागती जोत मई 1982 ,
  • सिरजक : गौरीशंकर शर्मा ‘कमलेश’ ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी भासा साहित्य संगम अकादमी बीकानेर
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