जब बी
उगै छै नै
सूरज
अर प्हली किरण
कै लारां ई
आवै छै थारी याद...
रात ज्यूं-ज्यूं
ओढती जावै छै
काळी कामळी
जब बी
छोड़ दै ठाम
काळज्यो!
उतावळो तो कोई न
म्हूं
पण धीरज का बांध
टूटबा की सैनाणी
जाणै छै जमानो
यूं ई
खेलकणां थोड़ी छै...
घाव पै
पाटी बांधबो!
मारणो पड़ै छै मन
दरद कै तांई
ढोबा मं भरबा कै लेखै,
अर थारी ओळख
अस्यां ई
थोड़ी होगी मूरत...
बरसां तांई
भुगती छै तस
पाणीं मं बैठर!
लूण अर शक्कर को
स्वाद
करणो पड़्यो छै
अेक-मेक
जागबो अर सोबो
दोनीं
करणी पड़्या छै
बरोबर
जब जा'र
होया छै काळा
कागद
अर आर बैठी छै
कविता बगल मं...
अर थू कांई
समझै छै
म्हूं सोऊं छूं
सारी रात
थनै बिसरा'र
थारा ई उणग्यारा सूं
बातां करतो रूं छूं
बावळी!