गै'रै झांझरकै

खुल जावै थारी आंख

आपूं-आप

घट्टी रै घुरीजतै सुर में

सांभ लेवै ग्वाड़ी रौ परभात

भोळावण परबारी!

थारै हरख सूं जगायां

जागै आंगणौ

इंच्छा सूं अंगेजै चूल्हौ आग

थारै हेज नै पिछांणै

अंतस में इमरत धार्यां सांजणी!

थूं पोखै उण कामधेन रा

बाछड़ां री आस

थारी आफळ रै आपांण

हुलसै पालणे में किलकारी!

स्रोत
  • पोथी : जागती जोत काव्यांक, अंक - 4 जुलाई 1998 ,
  • सिरजक : नंद भारद्वाज ,
  • संपादक : भगवतीलाल व्यास ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी
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