रूंख म्हारै भी
अठै है
हंसता,-झूमता
भांत-भांत रा
सोचूं—
सगळां री है
अेक जूण
अेक गत
पण दरद
न्यारो-न्यारो।
आम रै रूंख सारू
बाळू रेत में
पसीनो कूडूं
पण उण रा होठ
हिलै नीं
औ आम
थारै कीया ऊ'लै
थारै कीया बोलै
ओ सवाल
भोम रा लोगां सं नीं
दरखत री जड़ां सूं पूछूं
क्यूंकै
मिनख तो अठैरा भी
साव अणजाण्या
अणसैंधा
म्हैं ईं धरती रै
नसै नै
सोधबो चावूं
अर भुलाबो चावूं
इण मनगत नै के
म्हैं पराई भोम
माथै नी खड्यो हूं
कांई पगां हेटी भोम
पराई हुय सकै?