म्हैं देख्यो

उफणतै आभै रै हेठै

उकळती ओकळ रै माथै

लपलपावती लूवां रै साम्हीं

बरसती बेकळू में रळीजतो

बांसरी बजावतो

काळी-पीळी आंधी सूं आथड़तो

पाळ बैठ्यो अेक गवाळियो!

म्हारै चितार चढी शंकर री कैलास-तपस्या

हेमाळू भाखर हेम भरियो बायरो

अर आभौ

म्हारै चेतै चढ्यो सागर मंथण

इमरत हळाहळ अर डमरू-नाद

म्हैं विचार्‌यो कै

इणमें कुणसो मेळ

अठै कठै शंकर?

कठै कैलास?

तो फगत अेक गवाळियो

बैठ्यो धोरै पाळ

इत्तैक मांय म्हारै अंतस सूं उठी आवाज

‘बावळा अळगाव तो देह रो धरम है

मन सूं सगळा अेक

तूं अगन अर बरफाळू देह सूं ऊपर उठ

गवाळियै री मस्ती देख

तूं बिसरज्या सागर-मंथण

मन रो मंथण देख।'

स्रोत
  • पोथी : मुळकै है कविता ,
  • सिरजक : प्रकाशदान चारण ,
  • प्रकाशक : गायत्री प्रकाशन ,
  • संस्करण : प्रथम संस्करण
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