हो अेक घर
घर जिस्सौ घर
बडा दादो-सा रौ
बगत रै बगतै
कीं पड़ी संकड़ायत
रैवास पेटै
नीं चावता थकां
छोटा दादो-सा
बणाय लीन्ही
अेक कोठी
मोटी-लाम्बी-चैड़ी
है उण में अेक बाग
दरखत-फूल आद सूं
रातौ-मातौ
आवै
इयां री डाळ-पात माथै
पंखेरू-तितळ्यां आद
जिकै में
बेसी हुवै चिडियां
भांत-भांत री चिडियां
मन करै पकड़ लूं
न्हाखतौ उणां नै दाणौ
पण
हर बार हार जाऊं
करतौ-करतौ
अैड़ा जतन
क्यूं कै
चिड़ी हुय जावै फुर्र...
कांई चिड़ी
म्हैं सूं डरपै ?
या, कै म्हैं
नीं जाणूं
चिड़ी रौ सुभाव
कै
उणनै तो हुवणौ है
फुर्र... फुर्र... फुर्र...