म्हारै हियै में

भावां रो भुंगळ्यो बैवै

आखर-आखर ऊकळे

छंद-बंध छिटकाय

तातै हिवडै नैं सरसावण

जेठ री पैली बिरखा ज्यूं—

कविता कागद माथै दड़ादड़ औसरै।

कविता मंड्यां पछै—

अंतस में धपळको उठै

मोकळा भाव सांचरै

भावां रै ओळ-दोळे

कविता रो कपास कातीजै।

आखर

जूना आखर

भाळ पड्योड़ा

तूटी टापरी में सिसकै

अर भाव

भुंगळ्यै ज्यूं

रिंधरोही में भटकै आखरां सारू

पण आखर लाधै कोनी

तो अबखो कारज

तो औ'ळी सोध

कियां पार पडै!

कागद रै कोठै

आखरां री आंट सूं

स्याही री संकळाई रै पाण

कविता रा कमठाण रोपीजै,

जद-जद जागै

अंतस री ऊरमा सूं

भावां रो भंगळ्यो

तद कविता रचीजै।

स्रोत
  • पोथी : मंडाण ,
  • सिरजक : महेन्द्र मील ,
  • संपादक : नीरज दइया ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी ,
  • संस्करण : Prtham
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