वै उमाया आवै अगूणा

आपां भाजां आथूण कानी

पण जगती रै धुर साच ज्यूं

सूरज तो ऊभो है थिर

फेरूं आपां देखां

सूरज री ऊगाळी अर उणरो बिसूंजणो।

अबै जे बणाय लीनी

आपां धारणा

कै ऊगै सो आथमै, फूलै सो कुमळावै

तो धिंगाणै क्यूं करां?

आपणी लूंठी संस्कृति अर

सांवठी परंपरा रै मिटण रो सोच!

कुदरत नीं ढाब सकै

बगत रो बायरो

बदळाव री आंधी अर

तकनीक रो तूफान,

बिरथा है भंवणो

भरम रै भतूळियै उणमान।

स्रोत
  • पोथी : राजस्थली ,
  • सिरजक : शंकरसिंह राजपुरोहित ,
  • संपादक : श्याम महर्षि ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी संस्कृति पीठ, राष्ट्रभाषा हिन्दी प्रचार समिति
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