आया क्यूं हाल तांई,

म्हारा मन का मीत री?

मारती फालकड़ी खदी,

आंगणां मैं बैठती।

खदी फाटी बोरी लेती,

पोळ मैं जा लेटती।

अठी उंठी सूं आती-जाती,

लेर अपासी उठती

झनन-झनन जाती

बारणां मैं देकती।

कांई होग्यो हरणी चढ़गी,

कचर्यो आयो माथा पै।

पीपळी पै हाळी हाळण

चांदो आग्यो माथा पै।

बैलां की न्हं टोकर्‌यां

न्हं बालमजी का गीत री।

आया क्यूं हाल तांईं

म्हारा मन का मीत री॥

झींगर की झणकार

श्यां सट्ट मैं गरणावै छै

गंदकड़ा को बोलबो

घणो सरमावै छै

पूरब आडी कुत्तो बोल्यो

कोई-कोई आवै छै

बाड़ा बांधी गाय रांभी

हीरा मोती आवै छै।

कुत्तो बोल्यां घड़ी बीतगी

छागी श्यां सट्ट हो

पोळ मैं सूं भीतर चाली

कर्‌या बारणा पट्ट हो

मन ही मन मैं धीरां

गुणगुणावै यो गीत री।

आया क्यूं हाल तांई

म्हारा मन का मीत री॥

चाल हीरा चाल मोती

गांव आडी चाल रै

चन्दरमा धरती सूं मलग्यो

सूनी सरवर पाळ रै

जोत खोल्या जूड़ो खोल्यो

पटकी कांधै हाळ रै

न्हाळती वा बाट होसी

बेगो-बेगो चाल रै।

बेगो-भाग्यो-दौड़्यो-भाग्यो

अर उतावळो चाल्यो छै

गलगलियां छूटी हिवड़ा मैं

तन उमंग में हाल्यो छै

खेत का खलाणा का

यो गातो चाल्यो गीत री।

चाल्यो घर की आडी चाल्यो

हाळी, मन को मीत री॥

खोल म्हारी रूपाळी

दरवाजो बेगो खोल री,

सुणतां हिवड़ो हरख्यो

तन-मन गयो डोल री।

भागी-भागी चाली-बेगी

दौड़ी पूगी पोळ री

शरमातां-शरमातां ऊं नैं

दियो बारणो खोल री।

ववांड़ अठी खोल्या पण

ऊंठी कूकड़ो बोलग्यो

मन का मीठा लाडूड़ां मैं

जहर बैरी घोळग्यो।

बीतगी या रात, छोडो

रात की रंगरीत री।

आया पण मोड़ा आया

म्हारा मन का मीत री॥

स्रोत
  • पोथी : सरवर, सूरज अर संझ्या ,
  • सिरजक : प्रेमजी ‘प्रेम’ ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी भाषा साहित्य संगम अकादमी ,
  • संस्करण : Pratham
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