कैवतां अंगूठो,

कांई आवै चेतै आपनै?

सोचण री कोनी बात

अंगूठो कैयां, अंगूठो चेतै आवै।

देखता-दिखावतां अगूंठो

अंगूठो बण जावै

किणी रै नाक रो सवाल

मोटा मिनख जे नीं होवता,

टाबरी मांय मोदीजता

मूंडै मांय लेय’र अंगूठो।

सांची! अंगूठो कैवतां

म्हारी आंख्यां साम्हीं आवै— गुरु द्रोण!

जे कर लेवूं आंख्यां आडो हाथ

लखावै— गायब हुयग्या म्हारा अंगूठा

इण दीठाव नै माडै कर देवूं अदीठ

सुणीजै म्हनै अणभणियां रो हाको

बां री मजबूरी है कै अजेस बां नै लगावणो पड़ै अंगूठो

जीवण मांय घणो जरूरी है— अंगूठो

बिना अंगूठै

कोई किणी रै टीको कियां काढै..!

आओ! आपां रम्मां

लेवां ओळी अर अंगूठै री सीध

क्यूं किणी नै ठेंगो दीसै इण ओळी मांय

अेक रकम हुया करै है टीको....

सबदां मांय अठै रकम कूड़ी खरी

साची बात करां आपां कविता मांय

बांचण सूं पैली टीको तो सरी कविता नै..!

थां बतायो कोनी—

कैवतां अंगूठो,

कांई-कांई आवै चेतै?

थे देखो कोनी—

कुण दिखावै अंगूठो!

स्रोत
  • पोथी : पाछो कुण आसी ,
  • सिरजक : डॉ.नीरज दइया ,
  • प्रकाशक : सर्जना प्रकाशन, बीकानेर ,
  • संस्करण : प्रथम संस्करण