कांई फरक पड़ै है

बंद अर खुली मुट्ठी मांय?

आकाश तो

उतणो ही समासी

जितणो’क हिस्सै मांय

आयोड़ो है।

मांडल्यो चाहे

कितणा ही मांडणा

हिवड़ै रै आकाश पै?

पण

बै भी लखावै

जाणै

गरीब री झूंपड़ी मांय

अेक

दिवलो टिम-टिमावै

जिण नैं फगत निरखता रैवै

दूरां सूं ही

खड़्या-खड़्या।

स्रोत
  • पोथी : पांगळी पीड़ रा दो आखर ,
  • सिरजक : एस.आर. टेलर ‘सुधाकर’ / श्याम सुन्दर टेलर ,
  • प्रकाशक : बिणजारी प्रकाशन ,
  • संस्करण : प्रथम संस्करण
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