रूप बदळै रूतां आपरो, रंग-ढंग न्यारा-न्यारा दरसावै।

बदळती रूतां लागै चोखी, आपरै रंग जद ढळ ज्यावै॥

सियाळै रौ सी गयो, घण सौवै बासंती रूत।

मन मोरियो नाच उठ्यो, हिवड़ै हिलोळ मचंत॥

बासंती रूत घण न्यारी, लोही नूंवों उफाण करै।

बोदा पान झड़े जद, नूंवा पानड़ा फड़फड़ाट करै॥

मधरो-मधरो तावड़ियो सावै, पून रा ल्हैरका बिचाळै आवै।

आडी-डोडी घण अणखावै, रूत बासंती घणी मन भावै॥

फागण महिनो जद लागै, जोबनियो घण गरणाट करै।

बूढा-जवान ओक बरोबर, सगळा इण री हुंकार भरै॥

परवाणा परदेसां पूग्या, बात म्हारी थै मानलो।

खातां री खतावण छोड़ो, पैली गाडी पकड़लो॥

पुन माड़ा परदेसां बस्या, देसड़लां हरख होळी सजै।

न्यूत बुलावै धणियाणी, छुटटी मिलै तो हरि भजै॥

ज्यूं-ज्यूं थाप पड़ै डफ माथै, कामणियां घण कळाप करै।

साईनै री ओळयूं घणी संतावै, रात्यूं रोय-रोय नैण झरे॥

फागण रो मस्त महिनो, कोई लुकाछिपी कोनी।

खुला कंठा गावै सगळा, मन किणी रै बस कोनी॥

बरसाणै री होळी घणचावी, स्याम साथै खेले राधा राणी।

बरसाणै बरसे घण लठ, मरूधर में कोरडां साथै पांणी॥

कोरड़ां री जबरी मार, बडां-बडां नैं पछाड्दै।

पांणी री लूंठी घार, कामण्यां रा पूर फाड़दै॥

रंगरंगीलै इण तिंवार में, रंग-रंगण री खुली छूट है।

रंग नीं मिलै तो, कादा-कीचड़ री नाळ्यां भी अखूट है।

मन रळी पूरै फागणियो, किणी रौ आंकस कोनी।

जोर-जबर चालै जबरी, समझावण री हिम्मत कोनी॥

होळी रै ओळावै, कुदसिया नित कुचरण्यां करै।

आपो देवै आपरो, लाज सरम उघाड़ता फिरै॥

फागणियै में भांग घुटै, पीवै सगळा चाव सूं।

दुनिया लागै मुठी में, भांग री भुवांळ सूं।

हियो घण हिलोरा खावै, सुरगां में गोता लगावै।

लिखारां नैं मिले नूंवी सूझ, कलम री धार पळकावै॥

उडै अकासां भरम में, धरम-करम सौ भूल ज्यावै।

नूंवी-नूंवी कुचमाद्या कर, छाती रा छोडा कर ज्यावै॥

स्रोत
  • पोथी : थार सप्तक 5 ,
  • सिरजक : विनोद सारस्वत
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