हाय-हाय! म्हारै ब्याव री बात चाल पड़ी। अबार तो नीठ लारलै जनम में घणी मुसकल सूं लुगाई सूं पिंड छुड़ा’र आयो हो अर इण जिनगाणी रै इकलाण रा पंद्रह बरस बिताया हा’क बस फेर म्हारै ब्याव री बात चाल पड़ी। हाय के करूं?

म्हानै आछी तरियाँ याद है, जद भगवान म्हनै दूसरो जनम लेवण रो हुकम देय रैया, उण बखत मैं हाथ जोड़’र भगवान नै अरज करी’क ‘हे भगवान! म्हनै जनम भर कुंवारो रैवण से भाग बखसिया’, अर भगवान कैई भी’क ‘आछ्यो बेटा, इयां होवैला।’ पण आज फेर म्हारै ब्याव री बात चाल पड़ी। स्यात् उण वेळा भगवान खनै लिछमीजी बैठ्या होवैला।

लोग जद ब्याव खातर कैवण लाग्या जणा म्हनै पूंछ-कटियै स्यार री बात याद आई। आपरी पूंछ कटण री बात जिण हुंस्यारी सूं लुकाय नै सैंगा नै पूछ कटावण री सल्ला दीनी, उणी’ज तरियां एक मिनख ब्याव करनै, दूसरै रो भी बेगो हो जावै आई चेस्टा राखण लाग जावै। ओर नीं तो बो छोर्‌यां पैदा करण लाग जावैला। क्यूंक जद छोर्‌यां जनमैली तो ब्याव भी होवैला ई। किसी मुसीबत है!

अबार परस्यूं मैं गैलै बग रैयो तो एक झुंपड़ी में लोग-लुगाई आपस में झगड़ रैया। लुगाई कैय रैई’क ‘जद म्हनै खुवाण-प्याण नै अर टाबरां रै वास्तै बन्दोबस्त करण जोगता नीं हा तो म्हानै क्यूं रुळाओ, म्हां सूं ब्याव क्यूं कर्‌यो, कुंवारा रैय जावता। उण बखत म्हनै म्हारै ऊपर गरब होयो अर सोच्यो ‘कितरो सुखी हूं।’ पण हाय! म्हनै ठा कोनी ही’क इतरी बेगी म्हारै भी ब्याव री बात चाल पड़ैला।

मैं रोजीना देखूं, म्हारै कॉलेज में जिका छोरा पढै, बै भगवान सूं अरज कर्‌या करै ‘क ‘हे भगवान! इण फर्स्ट ईयर हाळी छोरी सूं म्हारो ब्याव होय जावै।’ कोई छोरो कैवै, हे भगवान! म्हारो ब्याव जै इण थर्ड ईयर हाळी छोरी सूं नी होवैला तो मैं मर जावूंला!’ मैं उणनै गाळ काढूं अर कैवूं, फर्स्ट ईयर में तूं पिसतावै नीं तो म्हनै कैई’ अर थर्ड ईयर में थारी जिनगाणी खतम नीं होय जावै तो म्हनै कैई? जिनगाणी नै इतरी छोटी मत करै अर कई दिन कुंवारो रैयनै जी! बेरो कोनी, लोग ब्याव रै खातर इतरा क्यूं मरै!

मैं कैवूं, मानल्यो थारो ब्याव होय जावै (इयां कठै पड़्या है सगळां रा ब्याव होवणा) तो बस समझल्यो आपरी जिनगानी रो घोड़ो गिरस्ती रै तांगै में जुतग्यो। अर आप जाणो हो’क एकर तांगै में जुतेड़ो घोड़ो फेर इण जिनगाणी में तो छुटकारो पावै कोनी। मानल्यो, जै किणी रो ब्याव उणरी मन-चाई छोरी सूं होय जावै तो फेर गयो काम सूं। उणरी हालत उण घोड़ै जेड़ी होय जावै, जिको एक प्राइवेट तांगै रै घोड़ै री होवै। जियां समझल्यो, प्राइवेट तांगै रो मालक आपरै घोड़ै रो बणाव सिणगार करैला, उणरै कानां में रंगीन छर्रा बांधैला, गळै में छम-छम करता घूघरा बांधैला अर तांगै नै इण खातर सजाय नै बैठैला’क तांगै रो मालक तो अकडैला पण घोड़ो भी जद आपरै चालण रै सागै छम-छम री आवाज सुणैला, रंगीन कागदां रै छर्रा सूं सर-सर करती हवा सुणैला तो इस्यो अकड़ैला’क अपणै आपनै कितरो भागी समझैला’क किणी मालक रो घोड़ो हूं। किणी मालक रै हाथ में म्हारी नकेल है। मन-चाई बीनणी मिलण हाळो आदमी भी जद आपरी लुगाई नै सिंझ्या री बेळा सिणगार कराय नै उण सागै अकड़’र चालैला तो उण घोड़ै में अर उण मिनख में कंई भी फरक नीं दिखाई देवैला।

जद भी मिनख आपरी गळती नीं समझै। सो कीं सै’वण रो हियाव दिखावैला। इण छोरी खातर बड़ी सूं बड़ी मुसीबत सैंवण सकूं। मां-बाप सूं लड़ाई कर सकैला, जात-पांत छोड़ देवैला, पढ़ाई-लिखाई री तो कंई बात नीं, आपरो गांव छोड़ देवणो तो जरूरी समझैला। बस ब्याव होयो अर मुसीबत चालू। जरूरतां रो पहाड़ आय पड़ैला। फेर या तो किणी कुवै में कूद’र खूब पाणी पीय जावैला, या किणी गाड़ी नै घंटै दो घंटै लेट करावैला अर आपरी जिनगाणी सूं हाथ धोय लेवैला। मैं कैवूं, इण सैंग बातां री दरकार के?

स्रोत
  • पोथी : राजस्थान के कहानीकार ,
  • सिरजक : गोपीवल्लभ गोस्वामी ‘उपेक्षित’ ,
  • संपादक : दीनदयाल ओझा ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी साहित्य संस्थान, जोधपुर ,
  • संस्करण : द्वितीय संस्करण
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