गीता बोरी रौ तापड़ियौ आंगणै बिछायौ अर बोली, “बैठ।”

म्है आज्ञाकारी टाबर री दाई बैठग्यौ अर गीता म्हारै सामी।

“आज गैलौ कियां भूलग्यौ?”

“यूं ई, याद आयगी तो आयग्यौ।”

“रेवण दे, म्हारै जिसां नै कुण याद करै?”गीता रै चैहरे पे उदासी छायगी। बीं री आंख्यां ऊंडी गयौड़ी ही अर च्यारूं मेर काळा घेर बणण लागग्या हा।

“थूं दूबळी घणी होयगी गीता? कांई बात है? जीजौसा रोटियां पूरी देवै है के नी?”

“थनै देख्यां नै कितरौ टैम होयग्यौ, पूरा चार बरस।” वणी बात नै टाळवा री खेचळ कीधी।

“म्हैं थारौ ब्याव हुयां पछै थनै पैली बार देख रहयौ हूं। गांव तो कदैई आवै कोनी। आवै क्यूं? अबै तो शहर री वासी होयगी है। गांव दाय कियां आवै।”

म्है सोच्यौ म्हारी मीठी मसखरी सूं वा मन में राजी होसी, पण वा तो औरूं उदास होयगी। गीता रो वैवार म्हनै रहसमय लाग्यौ। या वा गीता कठै जिकी गांव री गळियां में बकरी रा मेमना ज्यूं फदकती फिरती। कदी आंबा री शाख माथै ‘डाळ कामड़ी’ खेलता थकां तो कदी आंबली री गैरी छिया में आंबलियां बीणती थकी। वा आंबली जीभ पै मेल मूंडौ इस्यौ-इस्यौ करती के म्हनै वौ सीन हाल तक याद है। हंसी री पोटळी तो बींकै मूंडा रै बंधी’ज रैवती। झट खोल देती, बात-बात माथै। म्हारै अर गीता रै तो घणी पटती। म्हांरा घर आसैपासै हा। आखौ दिन सागै-सागै रमता अर दौड़ता फिरता। धूड़-माटी में खेलता, मगरा में गायां चरावता, नदी रै ढावै रेत रा घर बणावता अर साथैई इस्कूल में भणवा जाता। अेक दिन म्हैं वणी नै कैय दियौ, “गीतूड़ी, म्हैं थनै परणूंगा।”

“हट। सकल तो बांदरा जीसी है अर म्हनै परणेगौ। जा पैली मुंडौ धोयनै आव नाळचा में।” अर गीता खिलखिल करती किणी झाड़ी री ओट होयगी ही। म्हनै हंसी आयगी।

“कांई सोचै है?”

“कीं नी, टाबरपणै री कोई बात याद आयगी।”

“किसी बात?”

“वा परणवा री।”

“अरे, थनै याद है हाल ताईं?”

गीता हंसण लागी। इतरी देर पछै म्हैं असली गीता देख सक्यौ। पण यो कांई? हंसता-हंसता वा अचाणचक चुप होयगी। जाणै सौ वाट रौ बलब उजास देतौ-देतौ फ्यूज होयग्यौ।

वा उठगी। कैवण लागी, “म्हैं किसीक गैली हूं। आवतां बातां करण नै बैठगी। चाय-पाणी रो कोनी पूछ्यो।” म्हारी इंछ्या तो हुई कै बींरो हाथ पकड़’र बिठाय दूं। पण बीं री आंख्यां में तळायां भरी देखनै हिम्मत नी व्ही।

गीता खांडौ गिलास म्हारै कानी कीधौ अर बूचौ कप लेयनै खुद बैठगी। गिलास में काळा रंग रौ गरम पाणी भरयोड़ौ।

“इण बखत होटलां में दूध कोनी मिळै, काढ़ौ बणावणो पड़ियौ। तुलसी पतर, काळी मिरच नाख्या है। पी लै, फायदेमंद है।”

म्हैं एक सबड़कौ भर गीता रै मूंडै कानी देख्यौ। वा सकपकाणी। पछै हवळै-हवळै संभळी। म्हनै लखायौ के गीता इण घर री नाम-मातर री राणी है। घर री चाबी तो कोई दूजै कनै है। तो कांई गीता इतरी पराधीन है के दूध रा पीसा ख़रच नी कर सकै? ना ना, भगवान करै म्हारौ अंदाज कूड़ होवै। पण कूड़ कियां मानूं। गीता रै डील गाभाई बतावै है। ठौड़-ठौड़ कारियां लाग्योड़ा। लुकावण री आफळ करै पण लुकै कठै है। उण री सूनी-सूनी आंख्यां अभाव रा गीत गावै ही। खाली-खाली कमरो गीता रा मन नै वाचा देवै हो। गांव में तो सगळा कैवै के गीता शहर में खूब सुखी-सोरी है। कांई जवानी में आंख्यां री चमक अलोप हो जावणौ सोरौ-सुखी होवणो है?

“गीता।”

“हूं।”

“अेक बात पूछूं, सांच-सांच बतासी?”

“पूछ।”

“तू अठै खुश है?”

म्हारौ सवाल सुणताई गीता री आंख्यां सूं सावण-भादवौ ओसरण लाग्यौ।

“च्यार बरस पछै सही कोई मिल्यौ तो है म्हारौ सुख-दुख पूछण आळौ। म्हारै मूंडै सूं थनै कांई कैवूं। थोड़ी देर पछै थारै जीजाजी आसीज, खुशियां रौ कोई नुवौ तोअफौ लेयनै, उण बखत थूं खुद देख लीजै।”

“कांई धंधौ करै है वे?”

“उणांनै इज पूछजै। म्हनै तो कीं ठा नी पड़ै वांरै धंधै री। मिनख कैवै के मटका रो धंधौ करै। म्हैं तो ये पाणी भरण मटका नै जाणूं।” म्हनै समझण में देर नी लागी के घर री हालत खस्ता क्यूं है।

“साल-डोढ़ साल तो चोखौ निसरियौ। फेर नी जाणै वणी यां माथै कांई जादू कर दीधौ।”

“कणी कीधौ?”

“वणी ज, जिण नै इणा घर में घाल राखी है, न्यारौ कमरौ लेयनै।”

ओह, तो या बात है। लुगाई रौ सै सूं मोटौ दुख सौत हुया करै है।

“यूं कींकर होयग्यौ?”

“म्है फूटरी नी हूं, पीहर सूं दायजौ नी लाई हूं, म्हारै पेट नी मण्ड्यौ है।”

बारली फाटक चूं चूं करती बोली अर अेक आधकड़ लुगाई मांयनै आई। म्है अंदाज लगायौ के ये गीता रा सासूजी है।

“लाड़ी, कठीनै है?” वांरी बोली में सनेव घुळ्योड़ो हो।

“बाई अठीनै आवौ। देखो आज कुण आयौ है।”

“कुण होसी?” मांजी कमरै में आवतां-आवतां पूछ्यौ।

“म्हारै पीहर सूं काकाई भाई आयौ है।”

“पधारो सा। कांई बात है? थां लोग तो गीता ने भूलग्या दीखौ। कोई आवै-जावै कोनी।” मांजी मीठो ओळमौ दियौ।

“वे देखै के शहर में दीधी है, खूब आराम में होसी। संभाळ नै कांई करणौ।” गीता रै चैहरे माथै फेर वा उदासी पसरगी।

“गांव में सै राजी-खुशी है?” बाई पूछ्यौ। गीता बीच में बोली, “अरे हां, म्हैं तो पूछणौ भूलगी। म्हारा मम्मी-पापा तो सावळ है?”

“अबै पापा तो साव थाकग्या है। आंख्यां में मोतियो उतर आयौ है, इण कारण निजर कम पड़ै। गोडा में गठिया वाय सूं पीड़ रैवै। थनै घणी याद करै।”

“दादो कींकर है? उण रौ आकरो सुभाव कीं धीमौ पड़ियौ के?”

“कठै धीमौ पड़ियौ। आयै दिन कोई कोई सूं रोळौ करतो इज रैवै। पापा-मम्मी सूं भी झगड़ न्यारौ होयग्यौ है।”

गीता रै सासूजी निसास नाखी, “आजकाल वायरौ इसौ वाजग्यौ है। टाबरां ने गू-मूत धोयनै मोटा करां, वांका तोख उठावां, परणावां-पतावां अर वै इज बडा होयनै छाती माथै मूंग दळण लागै। इसी जाणता होवां तो जलमता पड़की देयदां। सगळी देण मिट जावै। इण पांत तो बांझ चोखा…| लाड़ी अब तो सुण्यौ है के कुंवरसा बीं नागण नै अठै लाय रहया है।”

“ना, ना।” गीता नींद में सूं जागी, जाणै नागण निजरां सामी आयगी होवै।

“सुणी है।”

“लावण दो। अठै तो आपां दो जणियां हां। बेटी रै माथै पाड़ांगा तो खाटो निकाळ देवालां।”

थोड़ी ताळ कमरै में मून छायोड़ी रही। अेक मोटो सो ऊंदरौ अठी-उठी दौड़ लगावै हो। स्यात पाड़ोस सूं आयग्यौ हो। म्हनै लखायौ के चिंतावां अर विचारां रो इसौ टणकौ ऊंदरौ म्हां तीनू रै मन में फदकै है।

मांजी मून तोड़ी, “गीता, रोटी-पाणी री त्यारी करै के पीहरिया नै भूखौ राखसी।”

जीमती बखत कोई खास बातचीत नी हुई। यूं हल्की-फुल्की। घर को जिसौ भारी वातावरण हो उण नै देखता थका इसी हल्की-फुल्की बातां री जरूत ही।

“थूं आजकाल कांई करै?”

“नौकरी।”

“किसी नौकरी?”

“लेक्चरर री।”

“लेक्चरर कांई होवै?”

“मोटा छोरा नै भणावै।”

“अरे, तो यूं कैवै नी मास्टर होगौ है। कितरी तनखा मिलै?”

“ओ कोई दस-बारा हजार रूपिया।”

“अरे बापरे, इतरा?” म्हारै मूंडागै सेबड़ौ चाटतौ फिरतौ नै अब इतरी तनखा कमावा लागग्यौ?”

“थूं म्हारै सामी उघाड़ी भमती ही।”

उघाड़ी री कल्पना सूं गीता लाज सूं लाल व्हैगी।

“कठै लागी नौकरी?”

“अठै ई, थारै शहर में।”

“सांची? जद तो संभाळतौ रहीजै।”

बीं रात म्है गीता रै घरां सूतौ। सोवतां नींद आयगी। पण आधीक रात रा हाको-हूबौ सुणनै म्हारी नींद उड़गी। कनलै कमरै में कोई आदमी ज़ोर-ज़ोर सूं गाळियां काढ़ै हो। स्यात जीजाजीहा। गीता रै वास्तै ‘खुशी रौ तोअफौ’ लेयनै आया है।

“निकळजा रांड कमरै सूं।”

दूजी आवाज गीता री ही। थोड़ी धीमी, इण कारण म्हनै कान लगायनै सुणणौ पड़ियौ।

“म्हैं क्यूं निकळूं? इण रांड नै निकाळौ। म्हैं तो सात फेरा री परणी हूं। ऊभी आई हूं, आड़ी जासूं।”

“निकळै है के लगाऊं दो लात?”

जीजाजी री जबान लड़खड़ाय री ही। स्यात घोड़ै पै सवार हा।

“भला मार नांखौ पण नी निकळूंली। इण रांड नै निकाळौ।”

“रांड-रांड कर री है, चाल निकळ बारै।”

धम-धम री आवाजां आवण लागी। साफ हो के जीजाजी तोअफा री गांठड़ी गीता रै मोरा पै पटकै हा। पछै घसीटण री आवाज आई अर छेवट में किणी दरवाजौ बंद कर मांयनै सिटकणी लगाय दी। कमरै में अेक मरद अर अेक लुगाई री रळीमिळी हांसी म्हारै कानड़ा रै पर्दा में सूळ सी उतरगी।

थोड़ी देर पछै हबकियां रौ काळौ सायौ हौळै-हौळै म्हारै कमरै मांय वळियौ अर माचा कनै आ’र ढबग्यौ। म्हैं बीं रौ हाथ थाम लीधौ, “गीता!”

गीता बावळी होय माचा माथै पड़गी अर म्हारी छाती में मूंडौ घालने रोवण लागी। छाती रा सगळा बाल बीं रै आंसुवां सूं तर होयग्या। म्हारौ जीमणौ हाथ धीमै-धीमै बीं री पीठ पै फिरण लाग्यौ। म्हारी आंगळियां बीं रै मन री जळण नै शांत करण री नाकाम आफळ करै ही। दोनूं चुप पण मन भरियोड़ा। म्हारी सायणुभूति अर थावस सूं बीं रौ रोवणौ पाछौ हबकियां में बदळग्यौ। थोड़ी ताळ में म्हनै नींद आवण लागी। गीता होळेसीक उठ बोरी बिछायनै नीचै आंगणै माथै सूयगी। म्हनै नींद में लखायौ के म्हारै ओळै-दोळै हबकियां रौ दरियाव हबोळा खावै है।

दिन उगतां म्हैं गीता सूं सीख मांगी। जीजाजी अर वा लुगाई हाल कमरै में बंद हा। गीता रा सासूजी कामकाज में लाग्योड़ा हा।

“गीता, अबै म्हैं जाऊं?”

“हां, भाई जा। सवा पोहर रौ पीहर होग्यौ। म्हनै तो अठै उमर काटणी है।” गीता इतरी भारी आवाज में बोली जाणै उमर नी मगरौ काटणौ होवै।

“थूं अठै कियां दिन काढ़सी? चाल म्हारै सागै थनै गांव पुगाय दूं।”

“नी रै। बैन-बेटी सासरा में चोखी लागै। दांत मूंडै में सोभै। अठै कम सूं कम सासूजी रौ सहारौ तो है। उठै म्हारी भाभी नै थूं हाल जाणै नी है। दादा रो छोगौ। मेहणा देय देयनै कान पोला कर देसी। मां-बाप कितरा दिन रा, पाका पान है, आज है तो काल नीं।” फेर थोड़ी रुक बोली, “जीवती रही तो राखी पै आवूंली।”

गीता री आंख्यां सूज्योड़ी ही। जाणै मक्की दाणां नै गरम तवै पै नांख फुलाय दिया हा।

“थूं गांव कद जासी?”

“थावर नै।”

“मम्मी-पापा अर दादा नै कहीजै के गीता मजै में है। कोई चिंता नीं करै।”

म्हैं ऊंडा विचार में पड़ग्यौ। इतरौ कीं होग्यौ तो भी कैवै है के मजै में है!

“अठै री कोई बात वठै कहीजै मत। नी तो बिचारा मां-बाप दो दिन जीवता वेगा तो नी जीवेगा। थनै म्हारी सौगंध है, कोई वायरौ मत निकाळजै। कहीजै गीता शहर में सोरी-सुखी है। कोई बात री कमी नी है।”

म्हैं गीता कानी खरी मीट सूं देख्यौ। म्हनै लाग्यौ के बीं रै गळै रो रंग नीलौ है। जाणै सगळौ जहर कंठ में भेळौ कर राख्यौ है। वो सगळौ जहर जिकौ च्यार बरस सूं उणरै हलक में उतरण री कोशिश में लाग्योड़ो है।

म्हैं बत्तौ रुक नी सक्यौ। बारै निकळता-निकळता अेकर पूठ फेरने बीं नीलकंठी नै निजर भरनै देखली अर पछै बीं री निजर सूं अदीठ होयग्यौ।

स्रोत
  • पोथी : लेखक रै हाथां चुणियोड़ी ,
  • सिरजक : माधव नागदा ,
  • प्रकाशक : लेखक रै हाथां चुणियोड़ी
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