बिसांई लेवण खातर मा अर बापू कोई मिंट पांचेक, बां डीघी-सी दो हेल्यां बिच्चै सड़क माथै रूक्या होसी। अेक मोटो-सो खाखी झोळो मा कनै हो अर बापू रै खूंवा ऊपर अेक मोटी-सी संदूक ही। म्हैं लारै-लारै दौड़तो सो बगै हो। मा-बापू बिसांई खाई जणां म्हैं ई ठमग्यो अर बिजळायोड़ी निजरां सूं दोवां कांनी लैण-लैण बण्योड़ी हेल्यां नै दीदा फाड़-फाड़’र देख रैयो हो। झांझरको हो पण हेल्यां री खिड़क्यां रा भांत-भंतीला काचां मांय सूं आवतो च्यानणो म्हारै खातर कौतक सूं कमती कोनी हो। इसै रंगरंगीलै काचां रो च्यानणो म्हारै घरै तो है नीं। बिजळी ई कठै है म्हारै घरै? म्हारै तो मोहल्लै मांय किणी रै बिजळी नीं है। म्हे जिकी हेली नीचै बिसांई खा रैया हा – उणरै मांय सूं अणछक पेटीबाजै माथै कोई रै गावण रा सुर सुणीजणा सरू होया। म्हैं कान मांड्या – ओहो! कित्तो चोखो गावै। सात साल री औस्थ्या में म्हैं किणी नै झांझरकै इत्तो मीठो गावतां पैली बार सुण्यो हो। कांई गा रैयो हो इणनै तो म्हैं सावळ अपड़ नीं सक्यो पण म्हारी चितार मांय वो गावणो जाणै ठैरग्यो अर रस बण काळजै माथै चोपड़ीजग्यो। बीं रस रो चीकणास इण ढळती ऊमर मांय हाल ई मौजूद है।
बीं नान्ही-सी बिसांई पछै, “ले चाल...” कैय बापू उण अढींग संदूक नै खूंवै माथै धरली ही अर मा थैलो। म्हैं बां रै लारै-लारै भाजतो सो चालै हो। कोई घंटा खण में अेक-दो बिसांई और लेवता म्हे रेलवै टेसण पूगग्या। रेलवै टेसण म्हारै खातर सफां नूंवी चीज तो है नीं ही। अेक-दो दफा म्हैं नानाणै रेल सूं गयो हूं – मा सागै, पण उण बगत साव नान्हो हो। अबै छह साल रो तो चीजां नै सावळ देख सकै, पण म्हारै कानां में तो बो गावणो अर पेटीबाजै री धुन बसगी ही – इण वास्तै रेलवै टेसण री सगळी चीजां म्हैं अनासुरता मांय ई देखी। जदकै रेल री टेसण पूगण वाळै टाबर खातर रेल समेत स्सो-कीं कौतक ई कौतक होवै।
डब्बै मांय बैठ्यां पछै ई म्हैं उण झांझरकै वाळी धुन रो लारो करै हो। बां हेल्यां कनै थोड़ी बिसांई और खावता तो कीं भळै सुणतो। म्हनैं सीट उपरा बोलबालो बैठ्यो देख’र बापू मा नैं कैयो, “ औ तो रेल में बैठ्यां पछै स्याणो होयग्यो?”
मा थोड़ी-सी चिणखी।
“स्याणो ही है औ तो – कीं रो उजाड़ करै..!”
स्याणो के – म्हारै मगज मांय तो उण हेली वाळी रागळी गूंजै ही। कित्ती मीठी ही। मांय री मांय उळझण आ ही कै म्हैं उण धुन नै गाय नीं पाय रैयो हो। म्हारी सोच रै सागै-सागै ई म्हनैं दिसै हा बारै रूंखड़ा भाज्यां जावै हा अर दिनूगै पौर रो ठंडो वायरो ई डील नै घणो सुहावै हो। गाडी मांय छीड़ ही। खिड़की सूं इकलंग बारै झाकतो म्हैं जाणै उण राग री कोई ढाळ म्हारै मांय जचावै हो। सूडसर आयां बापू ताचक’र गया अर कीं बड़ा अर रबड़ी लेय’र आयग्या। घणकरा दूजा लोग ई औ ई सौदो लेय’र आया, जणां डब्बै मांय बड़ां री सुगंध घमरोळां लेवै ही। बड़ा खावणै मांय म्हारै अेक उतावळ-सी ही – म्हैं जाणै बांनै बेगो-सो सलटाय सागी धुन में आणो चावै हो।
बापू कैयो – “होळै भाई होळै, भाजै कोनी, अै मोठ रा लक्कड़ गळो पकड़ लेसी।” म्हनैं चोखा लाग रैया हा तो ई म्हैं बांनै बेगा-सा खाय निवेड़णो चावतो। उण गाणै रै तार मांय अै बड़ा-रबड़ी भिजोक-सो हा। थोड़ो पाणी पीयो अर थोड़ी रबड़ी खाय अणइंछ्या जताई। मीठै री भावना म्हारै सरू सूं नीं है। मा, “थोड़ी तो और ले रै” कैवती रैयी, पण म्हैं रूं नीं जोड़्यो।
खिड़की रै मुंड़ो चेप म्हैं अेकर – “ऊंऊंऊं...” कर’र कीं गाणो-सो तेवड़्यो पण बेगो ई रूआंसो होयग्यो। ऊं हूं – बीं हेली मांय गावणियो इयां कोनी गावै हो – बा तो बेजां ई मीठी राग ही।
बीकानेर टेसण पूग्यां पछै बापू टोर’र बठै ई ऊभी अेक दूजी गाडी मांय बैठाण दिया। बापू, म्हां मा-बेटै नै म्हारै नानेरै पुगावण जाय रैया हा। गाडी हंक्या रै थोड़ी ई ताळ पछै म्हारै नानेरै देसनोक री टेसण आयगी। उतरतां ई पेली बापू धोक देवण नै करणी माता रै मिंदर लेयग्या। टेसण सूं बारै निकळतां ई तो है माताजी रो मिंदर। मिंदर में म्हारै ई जीता-सा दूजा टाबरां खातर माताजी रा काबा अेक किलोळ ही, पण म्हैं तो बेगौ-सो धोक देय’र जठै ढोली चिरजा गावै हा – बठै आयग्यो। अेक मोट्यार लुगाई गावै तो सावळ ई हा, पण म्हनैं लाग्यो कै अै बीं हेली वाळै आदमी ज्यूं मीठा नीं गाय रैया है।
आज तो म्हैं अेक ढळती औस्थया रो मिनख हूं, पण म्हारी चितार मांय संगीत अर सुर रै मुधरै वासै रो बसाव जिण बगत सूं होयो – उण बगत सूं ई सरू होवै म्हारी सुर तिरस। साठ साल पार कर्यां पछै, बा तिरस आंनो-मासो बधी ई है – घटी तो जाबक ई कोनी। म्हनैं नीं ठाह – भगती करणवाळो किणरो ध्यान अर कितरी लवल्या सूं कित्तीक ताळ करै? पण म्हारो ध्यान समझ पड़ी तद सूं अणतूट रैयो है। म्हारी अदीठ परमसत्ता भीतरवाणी गाइजणवाळी रागळी है। जळ-थळ-अगन-आभो सैंग ठौड़ उणरो वासो है। बा वायरै रै मांय घुळ्योड़ी है। सैंग चीजां भलीभांत कथीजै पण सुर-लय नै सावळ कुण समझावै? किसड़ो गुरु बूझै कै अब तूं सावळ रंजग्यो के? इण सुरीली तिस रो कांई छैड़ो जिको कोई धाप जावै कै रंज सकै। आ तो अमाठ-अमाप अछेह है। माहोमाह सांस सूं सगारथ राखणवाळी कळा है। इण सिस्टी मांय आ रागळी कद तो पांगरी अर कद आ मुरझा जावैली, इयां कुण बता सकै?
म्हारै बाप रै अेक ई टाबरियो होवण रै कारण म्हैं लाडलो हो। नीं जणास म्हारी जात रा दूजा बाप आपरै आठ-दस साल रा होयां टाबरां नै सुथारी रो काम रै भोम पड़ै। रंदो-करौत चलावणी धीरै-धीरै सीखै। पण बापू म्हनैं काम माथै साथै नीं लेय जावता। कैवता, “लक्कड़ छोलण नै तो घणो ई बगत पड़्यो है – मोकळा आयठांण करी भलांई हाथां रै दोय आंक सीख लेवै तो कोई सावळ बींमै लागै।”
म्हैं स्कूल जावतो। स्कूल री बालसभा मांय टाबरां कनै सूं कीं न कीं गवाइजतो। टाबर रै गावणै मांय किसा सुर ताल – “हे… नीले गगन के तले, धरती का प्यार पले…” कोई टाबर गावतो तो म्हनैं लागतो कै औ क्यूं खेचळ करै – जद इणरै गावणै मांय मीठास नीं है तो औ क्यांमी गळो फाड़ै। अेक दिन म्हैं प्रार्थना त्यार करी – “हे प्रभो आनंद दाता ज्ञान हमको दीजिए।” इण प्रार्थना री आगली ओळी – “लीजिए शरण में हमको हम सदाचारी बने” नै गांवता म्हनै लाग रैयो हो कै इण मांयली गमक में कठै न कठै उण हेली मांय गावणियै री मीठास रो रळाव है। खुद नै ई सुणावण खातर म्हैं इण ओळी नै तीन-च्यार दफै गाई। म्हनैं लाग रैयो हो जाणै म्हारै गाणै मांय साचै ई मीठास सांचर रैयो है।
स्कूल रा मोटोड़ा गुरुजी आय’र हौळै-सी कांधो थपेड़्यो, “भोत बढिया, बढिया गावै, गाया कर लाडी!” म्हनैं लाग्यो, जाणै गुरुजी हेली मांय गावणियै उण अदीठ गायबी नै स्याबासी देवै, पण बित्तो मीठो तो म्हैं नीं गायो। छठी-सातवीं-आठवीं तीनूं बरस म्हैं गावण रै इण गुण रै कारण, पढाई मांय कीं कमजोर होवतां थकां मास्टरां रो मोहिलो रैयो। नवीं मांय म्हैं हाईस्कूल आयग्यो। दसवीं मांय भणता बापू म्हारै मुंडै कांनी झाकण लागग्या। कैवता, “अबै आगला दिनां दसवीं होयां पछै कोई नौकरी लागण री तजबीज करो बेटा, म्हे अबै किताक दिन लक्कड़ छोलस्यां?”
म्हानैं लागतो – अै ठीक ई कैय रैया है, म्हैं अेक ही तो बेटो हूं आंरो, आंनै आराम दिरावण वाळो। पण, अै नीं जाणै, नौकरी लागणो इत्तो सोरो काम नीं होवै अर लागूं ई कुणसी? कलाकार लोगां कनै दुनियावी समझ कम होवै। बै जीवण री जोड़-बाकी नै दूजै मिनखां ज्यूं नीं जाण पावै। म्हैं नौकरी री बात अेक दिन म्हारै मिंतर सूं कैयी। उण सुझायो, “और नौकरियां तो दोरी होवै। अेक नौकरी म्हारै ध्यान मांय है, अबै केठा थारै जचै, नहीं जचै, तूं रैयग्यो कलाकार मिनख।”
“कलाकारी नै अेकर परियां मेलस्यां – म्हनैं नौकरी बापू वास्तै करणी है। बांनै कीं सहारो देवूं जणां बात बणै।”
“ठीक, तो कालै दस बजी त्यार रैयी, आपां चालस्यां।” म्हैं उणनै आ ई नीं बूझी कै कठै चालस्यां! किणी पण बात रा खोदा लेवणा म्हारै सभाव मांय दर नीं है। जिंया होवै, बियां ठीक है। दिनूगै दस बजी बो आपरी साइकिल लेय’र म्हारै घरै आयग्यो। म्हैं सितक भऱ आ सोची कै औ कठै ले जासी? इयां कठै ई जायां किसी सरकारी नौकरी मिलै? पण आगलो लेय जावै है नीं – बैसी क्यांमी सोचां!
बो म्हनै बिजळीघर रै दफ्तर लेयग्यो। स्यात उणरी अठै पैली बात कर्योड़ी ही। म्हारौ मिंतर जिण मिनख नै जेन (जेईएन) साहब कैयो, “केई दिन थांनै हेल्पर रै रूप अेक लाइनमैन रै सागै काम करणो है अर पछै पक्कां में लाइनमैन बणा देस्यां।” म्हारै मन मांय किणतिणाटी-सी रैयी। आ के नौकरी है? पण देखां। घरै बापू नै बतायो तो बै राजी होया, “किसी ई होवै, राज री नौकरी तो है ई?”
मा नै बतायो बा नाराज होई, “लागो मोरो इसी नौकरी रै – आखो दिन खंभां अर बिजळी रै तारां मांय सिर खसोल्यां राखणो – ना लाडी रै, इसी नौकरी नांय सूं मजूरियो जावणो चोखो। सुथारी रो काम किसो माड़ो होवै? आपणै घर रो काम है – जात रो धंधो करण मांय कीं ओगाळ कोनी।”
मा रोळा करती जणां बापू हौळा बोलता। बै हौळै-सी बोल्या, “जणां छोल लक्कड़ – इण खिसब सूं बाप धन रा ढिगला लगा दिया – तूं ई लगा देयी। के बास्तै है ईं काम में – कोरो हिचकोड़ो है। चोखो थारै जचै जियां कर।” ओ बांरो छैकड़लो राछ हो। इण भांत बिजळीघर री नौकरी लाग्या सूं पैली ई खुसगी।
पांच-सात दिनां पछै म्हारी स्कूल रा मोटोड़ा गुरूजी मिलग्या। म्हैं निंवण कर्यो तो देखतां ई ओळख लिया, “अरै भई गिरधारी, और कांई हाल है? पढै है कै छोड दी पढाई?”
दोवूं हाथ मसळतां-मसळतां नजरां निची कर्यां म्हैं बतायो, “दसवीं तो पास करली गुरूजी, आगै तो बापू पढावै कोनी। बै कैवै नौकरी करो।” इण बिच्चै म्हैं बिजळीघर री बात ई बता दी।
गुरुजी कैयो, “सरकारी नौकरी तो दोरो ई काम है भाई, गुलर रो फूल होय रैयी है – आजकालै। अर लाग्यां पछै भी कुणसा काळा कोसां पटकै, ईं रो ई के ठाह है?” माड़ा सा ढब’र, कीं सोच’र बै कैयो, “आपां कनै स्कूल आज्या। सरकारी जिसी तनखा तो कोनी भाइड़ा, पण टेम कटी कर सकै। टाबरां में मन बिलम्योड़ो रैसी अर थारो गाणो-बजाणो भी – देखलै काम तो सोरो है अर मास्टरजी न्यारो बाजसी।”
“मास्टरजी बाजसी” आ सुण’र म्हनैं संको-सो आयो। म्हैं ‘हां’ रो लटको करतां कैयो, “आवूं गुरुजी।” म्हैं सोच्यो – ल्यो, नौकरी तो लागगी।
जिकी स्कूल में म्हैं हाफपैंट पैर्यां पढण जावतो, बीं स्कूल में अेक खाकी पैंट अर धोळी बुसट पैर’र मास्टर बण’र गयो। म्हनैं पढाणिया गुरुजी सगळा बठै ई हा। पैलै दिन प्रार्थना मांय बां रै सागै मास्टर रूप ऊभो होवतां म्हनै खासा संको आयो। सगळां नै टाबर ज्यूं ई धोक दिन्ही, प्रणाम कर्यो। सगळा ई कैयो, “वाह भाई गिरधारी, अबै ठीक है, स्कूल मांय संगीत मास्टर रो फोड़ो तो मिट्यो।”
उण नैनी सी स्कूल मांय संगीत रो घणो-सो कांई काम हो? हरेक थावर रा अेक बालसभा होंवती कै पछै चौक-च्यानणी, छब्बीस जनवरी अर पन्द्रै अगस्त – कोई अेक दो आंणो-टांणो और। म्हनैं पैली-दूजी-तीजी तांई रा टाबरां नै रुखाळणो होंवतो।
दोय साल लग स्कूल मांय ठीकठाक चालतो रैयो। मोटोड़ा गुरुजी दोय हजार रिपिया देंवता, म्हैं घरै ल्यार’र मा नै झला देंवतो। बापू मुळकता। स्यात इण वास्तै कै पांच हजार रिपिया तो बै सुथारी रै काम सूं ई कर रैया है। तो बांनै संतोख हो कै बांरो बेटो मास्टर तो है। रंदो तो कोनी चलावै। आज कम है – कालै बैसी होय जासी। तर-तर तरक्की ई होवणी है। मोटोड़ा गुरुजी रै कैयां आं दोय साल में म्हैं बारहवीं स्कूल ई प्राइवेट परीक्षा देय’र पास करली। आगलै साल म्हैं संगीत विशारद री त्यारी कर रैयो हो। संगीत री पोथ्यां बांच्यां म्हनैं मांय रो मांय संको सो आय रैयो हो कै म्हैं म्हारी रुचि रै इण काम मांय अजै भोत लारै हूं। इण विचार सूं म्हारै तालामेली-सी लाग्योड़ी रैवती। घाव मांय घोबो अेक नूंवी बात और होयगी।
इण बरस म्हारी स्कूल मांय बीएड कर्योड़ा म्हारै सूं तीन-च्यारेक बरस मोटा अेक मास्टर अंगरेजी पढावण वास्तै आया। थावर री बालसभा होवै कै गावण रो दूजो कोई मौको – बै म्हारै गाणै नै दूजा मास्टरां सूं कीं बैसी गौर सूं सुणता। म्हनैं लागतो कै बांनै संगीत सूं कीं बेसी लगाव दीखै। गांवती वैळा म्हैं बां रै चेरै रा उतार-चढाव बांचण री चेस्टा करतो। बीं दिन मोटोड़ा गुरुजी रै जीसा री बरसी रो दिन हो। बै भजनां रो अेक कार्यक्रम राख्यो। पांच-सात भजन म्हनैं ई गावणा हा – दूजो कोई गावणियो नीं हो। म्हैं लगैटगै डेढ घंटा भजन सुणाया। सगळा मास्टरां वाहवाही करी। पण म्हनैं ठाह है – आंनै फगत रागळी चोखी लागै – बाकी संगीत री बारीकियां सूं आंरो कांई वास्तो? बाकी मास्टर उठग्या जणां म्हैं अंग्रेजी वाळा मास्टरजी नै बूझ्यो, “मास्टरजी, कियां लाग्यो?”
बै सोभाऊ ढंग सूं कैयो, “ठीक ई लाग्यो – लागण में कांई है।”
म्हैं समझग्यो, बांनै जित्तो कैवणो चाईजै बो इत्तो ई कोनी। आ तो फगत सोभाऊ बात कैयीजी है। म्हैं घोदाया – “सावळ बतावो मास्टरजी, थे समझ राखो हो गावणै री?”
इण बात सूं बै थोड़ा जाणै कीं स्सोरा होया, “देखो गिरधारी जी, बुरो ना मान्या, थे सौखिया गावो जद तो स्सो ई ठीक है, पण संगीत नै काळजै सूं पकड़णो चावो जणां भोत कीं सीखण री ओजूं दरकार है। संगीत री आपरी परंपरा है, उणनै जाण्यां बिना संगीत मांय असल रस जामै कोनी। थे तो जाणो, हरेक राग रो अेक फोकल प्वायंट होवै – जिण मांय राग रा प्राण बसै। बीं प्वायंट नै ओळख्यां बिना-भलांई आखी उमर गावता रैवो – हरेक सुर सूं जिको रस झरणो चाईजै बो कोनी झरै। संगीत री सैली अर रागां नै हाथबसु करण रो मंतर तो थांनै किणी सोझीवान संगीतकार कनै जाय’र ई लेवणो पड़सी। उझड़ रागळी रो के बंटै?”
अंग्रेजी रा मास्टरजी तो इत्तो कैय’र बूहाग्या, पण, म्हारै पगां रै जाणै थड़ा बांधग्या। साची कैवै मास्टरजी – संसार मांय बोल्यां के ठा कित्ती भांत री होवै पण सुर री भासा न्यारी-न्यारी नीं होवै। अेक आलाप किण ई मुलक रो मिनख होवै, उणनै बांधण री खिमता राखै। पण उण आलाप मांय सामलै नै गाळण रो जादू तो कोई गुरु ई बता सकै। खाली किताबां सूं सीखणवाळी विद्या आ कोनी।
घरै आयां पछै ई म्हारो मुंडो उतर्योड़ो ई रैयो। मन में सोच्यो – गिरधारी लाल, घरै बैठ्यां कोई कोनी सिखावै – कोई आछै गारड़ू कनै जावणो ई पड़सी। फगत सरगम अर षडज, ऋषभ, गांधार अर मध्यम रा नाम जाण लेवण सूं कोई सुरां रो जाणकार कोनी हो सकै। संगीत री दुरदसा तो म्हारै जैड़ा घणी ई करै। खाली गिणत बधायां अर कोझो माड़ो गळो फाड़्यां सूं कांई होसी? म्हनैं म्हारै बाळपणै रो हेलीवाळो अणदीठ गवइयो चेतै आयो – म्हारी होड तो उण सूं है – जिण रो गावणो बिसरै ई नीं है। म्हारै समझ आई, जणां म्हैं सोच्यो अच्छ्या, बो गायबी झांझरकै-झांझरकै आपरो रियाज कर रैयो हो। उण गायबी रो पतो अबै कुण बता सकै ? अबै बां हेल्यां मांय फगत कबूतर बोलै। बै आपरै परदेस्यां नै अडीकती खुद सैतरी-बैतरी है।
जियां चालै जियां चलावां तो म्हारै कीं दोगाचिंती नीं है, पण म्हनैं संगीत मांय राचणो है तो बात अंग्रेजी वाळा मास्टरजी री सही है। पण म्हैं किण कनै आ विद्या सीखण जाऊं – कुण सिखासी? पछै म्हनैं कठैई जावण री इजाजत कुण देसी?
म्हैं बापू आगै कूड़ बोल्यो कै आगै तरक्की वास्तै म्हनैं छव महीनां री ट्रेनिंग करण नै जाणो पड़सी। बै तो खाली इत्तो ई कैयो, “भाई, थारै फायदो होवै जियां कर – पण करै जिकै में कसर मत छोडी।” मा नै भी इयां ई कैयो तो उण कैयो, “भाया, जा तो भलांई, पण बेगो आई जिको थारै लारै कोई रोट्यां पोवणवाळी ल्यावां।”
स्कूल मांय और तो सगळां सूं बात लुकोयां राखी, पण अंग्रेजी वाळा मास्टरजी री तो लाय ई लगायोड़ी ही, जणां दाई सूं के पेट लुकोवणो। बै म्हनैं समझावतां कैयो, “देखो, इयां तो संगीत रा घणाई घराणा बण्योड़ा है अर सैकड़ी साल सूं वांरी शिष्य परापरी चालै – तानसेन रो सेनिया घराणो, चिंतामणि मिश्र रो ग्वालियर घराणो, बनारस घराणो, आगरा घराणो, इयां बडा-बडां री डेरूं बाजै। पण म्हारी राय में बम्बई जावणो ठीक रैसी। बम्बई इस्यो स्हैर है जिण में सीखो अर सिखावो। सोध्यां सूं आपरी जोड़ रो गुरु मिल जावै तो खुद री जोड़ रो चेलो ई मिल जावै।
सिर मांय राख घाल लेवै बांनै कुण पाल सकै अर कुण रोक सकै। म्हैं बम्बई पूगग्यो। बठै विरार मांय म्हारा लागतै में मामा लकड़ी रै काम रा ठेका लेंवता। म्हारी ई जात रा म्हारै जियांकला पचासूं छोरा काम करता। गाडी मांय छालै रो के भार? म्हारै रैवण अर खावण रो कोई फोड़ो नीं हो – इण महानगर मांय औ ईज सैंगां सूं मोटो फोड़ो होवै। दो-च्यार दिन री पूछाताछी मांय ई म्हनैं ठाह लाग्यो कै सुजानगढ़ बीदावाटी रा निरा ई लोग अठै बम्बई मांय गाणै-बजाणै रा काम करै। चौथै ई दिन म्हैं चावा मिरदंग वादक भवानीशंकर कत्थक सूं मिल्यो। बै म्हनैं कैयो, “जे ताल वाद्य रै रूप तबलो-ढोलक मिरदंग सीखणो चावो तो हैं थांरी मदत कर सकूं, क्यूंकै थे देस सूं आया हो।” भवानीजी री इण सहजताई सूं म्हैं घणो प्रभावित होयो। आं दिनां बै ‘उमराव जान’ जियांकली फिल्म रै गाणा मांय मोहिलो तबलो बजा’र घणा चावा हो रैया हा। रिदम खातर हरेक म्यूजिक अरेंजर री बै पैली पसंद हा – इसड़ा मिनखां नै ब्हैल कठै? तो ई म्हारै खातर बांरो कंवळास जोय म्हें सरधा सूं भरग्यो। म्हैं बांनै लुळतारूपणै सूं कैयो, “सा, म्हनैं तो गावणो सीखणो है।” बै अेकर म्हारै कांनी झाक्या – म्हारी जाचक निजरां में बांनै स्यात कीं दीख्यो। बै अेक पांनै माथै लिख्यो – ‘बाबा भगवानदास आश्रम, माटुंगा’ नीचै लिख्यो – ‘पंडित गोविन्दप्रसाद जयपुरवाले।’ पछै कैयो, “इण आश्रम मांय आं सूं मिलो, कैय देया, भवानीजी भेज्यो है। अै भोत मोटा गुणी है। रागदारी में अर क्लासिकल में आं सूं सो-कीं सीख सको।” भवानीजी सूं रवाना होवतां म्हनैं लाग रैयो हो, जाणै म्हारी गाडी पटड़ी माथै चाल रैयी है।
आगलै ई दिन म्हैं दिनुगै-दिनुगै विरार सूं माटुंगा खातर रवाना होयग्यो। ईस्ट मांय पड़णवाळै इण आश्रम नै सोधण मांय म्हनैं घणो जोर कोनी आयो। म्हनैं जाण’र अचम्भो होयो कै दीतवार रै दिन सैंकड़ी गावण-बजावणवाळा कलाकार अठै भेळा होवै अर अेक-बीजै नै सुणै। गोविंदजी अेक सभागार मांय बिराज्योड़ा, कितरा ई म्हारै जैड़ा चेलां सूं घिर्योड़ा हा। म्हैं धोक देय’र “भवानीजी भेज्या है” कैयो तो वै राजी होया अर आपरै कनै बैठण रो कैयो। कठै सूं पधार्या, कियां आया? – बूझ्यो तो म्हैं सगळी बात बता दी। बै बतायौ कै, म्हैं नौरंगसर रो हूं। बडकां रो जयपुर राजघराणै सूं ताल्लुक होवण रै कारण जयपुरिया कैवै। अबै आप आ बतावो कै आपनै कांई सीखणो है। ऊंचै रूप मांय तो शास्त्रीय संगीत होवै, इण वास्तै संगीत मांय इणनै उच्चांग कैवै। बाकी आधुनिक गायबी रो भी आपरो मोल है। अठै बम्बई आवणवाळा तो फिल्मां मांय गावण री चावना लेय’र आवै।”
म्हैं बेगौ-सो कैयो, “सा, म्हनै गावण री साची लकब सीखणी है। बणणो-धणणो कीं कोनी।” बै हंस्या, अेक मुधरी-सी मुळक। कैयो, “मंगळवार सूं दिनुगै छह बजी आय जाया करो।” बां तो कैय दियो हो, पण घणो अबखो काम हो इत्ती दूर सूं अठै छह बजी पूगणो। म्हैं पूणी पांच री लोकल पकड़ माटूंगा आश्रम आवणो सरू कर दियो। लगैटगै अेक महीनै तांई तो बै म्हनैं अर म्हारै अलावा तीसेक चेलां नै राग नै परगट करणवाळै आलाप री जाणकारी करावता रैया –
आलाप रा अंग, विभाग, श्रेणी नै जाण’र म्हैं दंग रैयग्यो। मामूली-सो लागणवाळो आलाप सुरां री जीवण-जेवड़ी होवै?
नीं जाणै सिखावण रै सागै-सागै गुरुजी गोविंदप्रसादजी बीजी कित्ती बातां बतावता। बै कैवता – आ फगत रोजी रोटी कमावण री विद्या नीं है। इणनै रोजी सूं जोड़णियो तो इणरो कितरो ई अनरथ कर सकै। कदै-कदै बै आपरा सगळा ई चेलां नै कैवता कै भई गायबी पांच भांत री होवै। अेक तो गुरु गायक – जिको दूजां नै सिखावण खातर गावै। दूजो होवै – दूजां री नकल करणियो। तीजो होवै रसिक – जिको खुद नै रिझावै। चौथो रंजक – सांम्है सुणणियां रो मनरंजण करै। पांचवो – आपरै गावणै मांय नूंवी ऊंचाई ल्यावण री, कीं नूंवो सोधण री खेचळ करै। अबै सोचल्यो, थांनै किण भांत रो गायक बणणो है?
इणनै भगवान री किरपा ई समझणो चाईजै कै थोड़ा ई दिनां पछै म्हैं बांरो घरू मिनख ज्यूं होयग्यो। बांरा लाडेसर भवदीपजी रो ई म्हैं स्नेहभाजन होयग्यो। आपरै पिता ज्यूं बै ई संगीत रा मोटा गुणी है अर फिल्म संगीत रा लूंठा अरेंजर है। बम्बई में म्हारो हाथखरचो काढण खातर बै म्हनै कीं न कीं छोटो-मोटो साज बजावण कै पछै किणी आलाप खातर कै कोरस मांय गवावण खातर गाणां री रिकार्डिंग में सागै लेय जावता। आं कामां सूं मिल्योड़ी रकम रै पांण म्हारो सागीड़ो काम चाल जावतो अर कीं रकम घरै ई भेज देंवतो।
आयो तो म्हैं छह महीनां खातर हो पण अबै अठै दोय बरस होयग्या। दोय बरस मांय म्हैं रागां रा घणकरा गोत्र सीखग्यो। अेक अेक राग रा पच्चीसूं फंटवाड़ होवै। पैली म्हनै यमन-कलावती-देस अर झिंझोटी जियांकली रागां कीं बैसी भांवती पण इण कारज ऊंडो ऊतर्यो जणां ठा पड़्यो कै हरेक राग काळजै रै कळी करण खातर होवै – उणनै मांजै। अबै म्हारै खातर नीं गाणो दोरो रैयो – नीं किणी राग री बंदिश त्यार करणी दोरी रैयी। राग कल्याण रा पच्चीसूं भेद जद म्हैं म्हारा गुरुजी नै सुणाया तो वै गद्गद होयग्या। ऊभा होय’र म्हनैं गळै लगा लियो अर कैयो, “दोय ई बरस मांय रागदारी री इतरी बातां कम ई गायबी पकड़ पावै। म्हारी आसीस है – आगै बधो अर संगीत री रुखाळी करो। इणनै गतरस करण मांय बोहळा जणां लाग्योड़ा है।” म्हैं पगां पड़’र बां रै धोक खाई अर गळगळै कंठां कैयो, “म्हारै माथै तो आखी मैरबानी गुरुजी आपरी है।”
बम्बई सूं पाछो आयां पछै म्हैं संगीत विशारद पास करी अर केई दिन घरै ई रियाज करतो रैयो। अेक दिन गुरुजी रो ई फोन आयो कै तन्नै जयपुर में संगीत कला केन्द्र मांय संगीत शिक्षक सारू इंटरव्यू देवणो है। म्हैं बांरो कैयो कियां टाळ सकै हो। बठै म्हारो चयन होयग्यो। संगीत शिक्षक रै रूप म्हैं म्हारै गुरां रै बतायै रस्तै नै अंगीकार कर्यो अर म्हारा चेलां मांय संगीत री गाढ थरपण री चेस्टा करतो रैयो पण हौळै-हौळै सीखणिया टाबरां मांय म्हैं देख रैयो हो – उतार आयां जावै हो। संगीत सूं धन कमावण री भूख देख’र म्हारो मन उदास होय जावतो। संगीत तो मांयलै परमात्मा नै राजी करण वास्तै होवै। इण सूं गल्लो कियां भरीज सकै! राग रो नांव ‘राग’ इण वास्तै होवै क्यूंकै आ असल में जिण सूं राग करणो चाईजै, उण सूं राग करणो सिखावै।
उमर रै इण पड़ाव आवतां ई, सो-कीं पावतां ई म्हारै मन मांय अेक अमूझणी नाखुसी दरसावै, कै इण भारतभोम माथै इण री ऊजळी-पवीत संगीत परंपरा नै बिसराय – अेक रोळो च्यारां कांनी क्यूं पसरतो ई जाय रैयो है? म्हनै चेतै आयो। गुरुजी कैवता – “जियां खावण-पीवण री चीजां मांय माड़ी रळावट करीजै, संगीत ई उण विरती सूं न्यारो नीं है। म्हारो सोचणो जारी रैवतो पण म्हारी पूणी च्यार साल री पोती भाज’र आई अर कैयो, “दादू, गानो छुनावू?”
म्हैं कैयो, “हां छुनावो।”
वा कमर माथै हाथ धर’र कैयो – “छिटी बजावै – नखरा दिखावै – बीच छड़क पर – ओ-ओ-ओ – लड़की आंख मारै...।”
म्हारो मुंडो उतरग्यो – जाणै कोई म्हारी तपस्या माथै तातो तेल नाखग्यो। म्हनै टाबर थकै सुण्यो हेलीवाळो गायबी चेतै आयो – म्हैं मन ई मन कैयो – अबै कुण बाप झांझरकै-झांझरकै रियाज करै। अबै तो फीटा लोग – संगीत कांनी आंख मारै – जिण सूं रागां रोगली होय रैयी है।