अैड़ौ जबरौ चोर तौ आज तांई सुण्यौ नीं। कोई बीसूं घरां मांय चोरी होयगी। चोरी नूंवी भांत री। नां टूम-ठीकरी निकळै, नां रुपियौ-पीसौ। चोरी होवै फकत गाभां री।

रूपराम री जोड़ायत रा न्हाणघर री डोळी सूं गाभा चकीज्या तौ बात गरणाट चढगी। मूंढा जित्ती बातां। कोई कैवै टूंणौ करण वाळौ लेग्यौ तौ दूजौ कैवै, कोई आसिक बंदौ पूग्यौ दीसै, तौ तीजै रा अढाई चावळ न्यारा रंधै— गाभा चकीज्या नीं, ईं बात मांय राज है। पण साची कै गाभा तौ चकीज्या चकीज्या।

गांव मांय कोई नुवादी बात होवै अर इस्कूल मांय बीं माथै सोध नीं होवै, तौ होय नीं सकै। सोचतौ-विचारतौ म्हैं इस्कूल पूग्यौ तौ पैली पोत चपरासी महेश कुमार सूं भेंटा होया। हमेस री भांत वो आपरै जवांन मूंढै माथै उगती गूमड़ी नैं अगूंठै अर आंगळी बिचाळै पींचै हौ। वीं रै मूंढै माथै वा सागण खिंचीज्योड़ी अडीक ही। कील निसरण रै समचै होवण वाळै जीवसोरै री अबोट अडीक!

“किंयां महेस?” पूछतौ म्हैं मसखरी करूं, “अै गूमड़ियां इंयां को मिटै नीं...आं रौ इलाज दूजौ होवै लाडी....।”

चपरासी बाप रै मर्‌यां मुआवजै मांय चपरासी लाग्यौ नूंवौ छोरौ महेस सुण’र हमेस री भांत सरम मरतौ नाड़ नीची कर’र निसरग्यौ।

आज वाळौ तौ खड़कौ न्यारौ होयौ। कमरै मांय बड़तां म्हांनैं आदरामजी रा बोल सुणीज्या।

“किंयां?” मेघराजजी चासणी सी चाटतां पूछ्यौ।

“न्हांवती रा गाभा चक’र लेग्यौ है तौ कोई ऊत ई।” नेतरांमजी दांत तिड़कांवतां आपरी हाजरी मांडी।

“ले कठै गयौ। आज दिनूगै खेड़ै मांय लाधग्या।” म्हैं साम्हीं खेड़ै कांनी हाथ करतै कैयौ।

“गाभा मांय कीं लाध्यौ कोनी होसी, के बाळै हौ।” मेघराजजी आप कांनी सूं सार काढतां कैयौ।

“आज सूं पै’ली म्हैं बात सोचतौ।” म्हैं सबदां माथै जोर देवतौ बोल्यौ।

“किंयां?” जांणै नेतरांमजी रै बात पल्लै नीं पड़ी होवै।

“ओ इज कै गाभा चोरणियौ जरूर कोई गरीब गुरबौ है। लाई आपरौ तौ जिंयां-तिंयां धाकौ धिका लेवै पण जोड़ायत री आब बारै किंयां दिखण देवै?” म्हैं खांस’र गळौ साफ करतौ भळै बोल्यौ पण बात कोनी, जे बात होवती तौ वळै अै गाभा खेड़ै मांय क्यूं लाधता।

“देखौ, म्हैं बताऊं थांनैं। वो फकत गाभां सारू चोरी नीं करै। आपणै अठै लुगाई-पताई न्हांवती बरियां आपरी तबीजी, कंठी कुड़तियै मांय छोड देवै अर पछै जावै भूल। वीं रै अेकर दोकर अै गटका हाथ लाग्या होसी अर बस चकणा सरू कर दिया लुगायां रा गाभा।” मेघराजजी हाजरी रजिस्टर मांय दस्तखत करता बोल्या।

“अेक मजौ और...” आदरामजी इन्नै-बिन्नै तकावता बोल्या, “बैरी चड्डी अर चोळी ले छंट्यौ।”

“भई घरआळी नैं थै अेकला राजी को कर सकौ नीं, बापड़ौ वो के माणस कोनी!” मेघराजजी राफ छीदी करी।

“थांनैं के बैरौ कै चड्डी अर चोळी ले छंट्यौ!” नेतरांमजी बात री तह मांय जावणौ चावै हा।

“ओऽऽ छोड्डौ नेतरांमजी! म्हारै सूं कांई छांनी है। मुलक री खबर राखूं म्हैं।”

“तौ ई?”

“तौ क्यां री, रूपराम वाळै घर मांखर तौ आयौ हूं म्हैं।”

कांई इस्कूल, कांई घर। सगळै बस अेक चरचा। बडौ न्यारौ-निरवाळौ चोर है भई!

केई दिन तौ इण बात रा भचीड़ जबरा बोल्या, पण दिन खायां बात मठ्ठी पड़गी।

म्हैं रात नैं मोड़ै तांई नीं सोवूं। कदै कोई कहांणी री पोथी बांच लेवूं तौ कदै अदीतवार रौ अखबार चाटण लाग जाऊं। पोथी बांचता-बांचता रात रा इग्यारा बजग्या हा।

“क्यूं आधी-आधी रात तांई आंख्यां फोड़्या करौ हौ। दिनूगै वळै मोड़ै तांई मांची तोड़स्यौ।” म्हारी जोड़ायत अंगड़ाई तोड़ती, पसवाड़ौ फोरती आंख्यां मींच्या-मींच्यां बरड़ाई अर म्हैं लोटियौ निंदा’र सोड़ मांय दपटग्यौ।

बारै कीं सणफणाट-सो सुण’र म्हारा कांन खड़्या होया। बिल्ली होसी। सोच’र म्हैं अेकर तौ सोड़ मांय बड़्यौ रैयौ। वळै कीं बै’म-सो होयौ तौ सोड़ पासै कर’र किवाड़ां साम्हीं जा ऊभौ होयौ। रात च्यांनणी ही अर तरेड़ां मांखर आंगण रौ दरसाव साफ निगै आवै हौ। देख्यौ तौ देखतौ रैयग्यौ। कांन खुस’र हाथ मांय आयग्या। चपरासी महेस कुमार लप्पैं-लप्पैं म्हारी जोड़ायत रा गाभा तणी सूं उतारण लागर्‌यौ हौ।

उण गाभां नैं दोनूं हाथां मांय काठा भींच’र मूंढै आगै लगाया। गांजै री चिलम पीवणिया जिंयां सुट्टौ लगा’र मद मांय बावळा मूंढै अर नाक मांखर धूवौ काढता मजै वाळौ सांस छोडै, ठीक उणी’ज भांत उण अेक गुटकौ-सो लेय’र मूंढौ ढीलौ छोड’र आभै कांनी फूंक छोडी।

म्हारै डील माथै जांणै बळतौ-सो तेल पड़ग्यौ। म्हारै सांम्ही म्हारी घरवाळी रा...। मादर...! म्हारै कंठां मांय खीरा-सा उछळ्या अर पछै कूण मांय पड़ी पोला जड़्योड़ी लाठी चेतै आई। अठै भोभरौ नीं खिंडाद्यूं तौ मादर...।

पण उणी’ज बगत महेस कुमार रौ जांणै दूजौ कोई रूप म्हारै साम्हीं ऊभौ होयौ। सगळां सूं रळ-मिळ’र चालणियौ, कैणौ मांनणियौ, बोली रौ मीठौ अर स्याणौ-सोतौ महेस कुमार गाभाचोर होय सकै? पण खुद री आंख्यां पर पतियारौ नीं करूं तौ किण पर।

म्हारी जोड़ायत उठतां पांण आपरै धंधा मांय जुटगी। गाभां रौ तौ जिकर उण मूंढै मांय नीं घाल्यौ। का तौ वीं नैं गाभा चेतै कोनी हा अर जे हा तौ रोळां रै डर सूं उण बात दाब लीधी ही। क्यूंकै म्हैं वीं नैं घणी बार गाभा भीतर मै’लण सारू चेताया करूं हूं।

म्हारी आंख्यां मांय तौ बस गाभाचोर गाभाचोर रा चित्रांम मंडै हा। चोर! चपरासी महेस कुमार अेकर फेरूं म्हारै साम्हीं, म्हारै आंगणै मांय म्हारी लुगाई रा गाभा सूंघतौ ऊभौ हौ। गाभां रै नाक लगा’र भर्‌योड़ी वीं री लांबी सिसकारी...! “महेसिया तेरीऽऽ...!” म्हैं जाड़ पीसी, “नीं, छोड्यां तौ पार नीं पड़ै। बात तौ करणी है... हरांमजादै सूं...।”

हमेस री भांत म्हैं बगतसर इस्कूल पूग्यौ। महेस कुमार उणी’ज भांत रांम-रमी करी, जिंयां नित करतौ। पण म्हनैं लखायौ जांणै म्हारौ पडूत्तर सागी नीं हौ। स्यात् महेस कुमार लखग्यौ। ठैर जा बेटा! मौकौ लाग्यां बात करसूं। म्हैं बिचारी अर आखै दिन दांत भींच्यां राख्या। अेकर-दोकर महेस कुमार ओजूं साम्हीं पड़्यौ। लाग्यौ, म्हारी बेचैनी रौ कोई भभकौ वीं तांई जा पूग्यौ हौ। वीं रै मूंढै माथै किणी अदीठ आतंक री झांई पड़तख लखावै ही।

छुट्टी होयां पछै सगळा आप-आपरै घरै गया परा। म्हैं लोटौ चक्यौ अर दिसा-मैदांन सारू रोही कांनी वहीर होयौ। पाछौ आयौ जित्तै अंधारौ घिरग्यौ हौ। मांज्योड़ौ लोटौ मैल’र म्हैं हेलौ पाड़्यौ, “महेस! महेसिया!!”

“कांई गुरुजी?” पूछतौ महेस आपरी कोठड़ी सूं निसर’र म्हारै साम्हीं आय ऊभौ होयौ। वीं रै मूंढै माथै जांणै किणी धोळक बुरका मै’ली ही।

“हाथ तौ धुवा...।” कैवण रै समचै म्हारी निजर म्हारै गेरीज्योड़ै हाथां ऊपर टिकगी।

तरड़... तरड़...ऽ तरड़...ऽऽ पांणी री धार नीचै रगड़ीजती म्हारी हथेळियां मांय अेक गजब री मरोड़ मचळै ही।... घणी हेन-तेन करी तौ जबाड़ौ तोड़ नाखसूं साऽळै रौ। कित्तौ अणजांण बण्यौ बैठ्यौ है, जांणै गाभाचोर कोई दूजौ हौ। नीं, म्हारी ओळखांण मांय चूक नीं होय सकै। फेर रात साव ऊजळी ही। कांमगैलै होयोड़ै महेस कुमार नैं स्यात् इण री जाबक सोधी नीं ही।

महेस कुमार लोटौ मैल’र तावळौ-सो गमछौ ले आयौ। ल्यावै क्यूं नीं, म्हैं सोच्यौ। चांदणी री भलांई गिनरत पांतर जावौ, पण चोर रै मन मांय तौ नित च्यांनणौ बसै। सरभरा उणी च्यांनणै चमकै ही। पण ठैर...।

“महेस कुमार!”

“हां गुरुजी!” म्हनैं लखायौ जांणै वो आपरौ नांव सुण’र फड़कै चढग्यौ।

“थनैं ठाह है, गाभाचोर कुण है?” म्हैं होळै-सी पूछ्यौ। जांणै उण रै च्यांनणै मन मांय सेंध लगावतौ होऊं।

महेस कुमार रै मूंढै माथै बत्ती-सी बुझगी। अैन चस्योड़ै लोटियै नीचै ऊभौ वो अंधेरै री ढिगली रै उनमांन काळौ पड़्योड़ौ लखायौ। वीं री आंख्यां जांणै तड़ाछ खाय’र जमीं माथै पड़गी ही। वीं री आंख्यां री ठौड़ दो भाटा थिर दीसै हा।

“गुरुजी... गुरुजी...! म्हनैं माफ करद्यौ...। कांई ठाह किण खिण नैं ताचक’र महेस कुमार म्हारै पगां तांई पूगग्यौ हौ, “म्हनैं बगसद्यौ गुरुजी! आखै दिन म्हैं आपौ-आपनैं धिक्कारतौ रैवूं, पण रात पड़्यां पछै लुगाई रै गाभां री सौरम म्हनैं टिकण नीं देवै, म्हारौ गुंनौ माफ करौ, गरीब आदमी हूं। गुरुजी... गुरुजी....”

अचांणचक अेक गम्योड़ी-सी सौरम म्हारै हियै मांय जागी अर लाग्यौ जांणै गाभाचोर महेस कुमार नीं बल्कै म्हैं आप हूं। कांई ठाह उमर रा कित्ता बरस इणीं सौरम रौ लारौ करतां बीत्या होवैला। पण बा नित लाध’र अजेस म्हारै सूं अळगी ही।

कीं ताळ पछै म्हैं इस्कूल सूं निसर्‌यौ तौ आखै गांव नैं काल वाळौ सागी चांद आपरै रस मांय न्हवाय राख्यौ हौ। चांदणी रात मांय म्हनैं वा गम्योड़ी सौरम चौफेर फूटती लखाई। कद म्हारा पग अणूंती तावळ घर कांनी उठण लाग्या, म्हनैं इण री जाबक निगै नीं पड़ी।

कांई आज रात गांव री किणी लुगाई रा गाभा चोरी होवैला? घर रै नजीक पूगतां-पूगतां म्हारै हियै सवाल उगट्यौ अर उत्तर मांय मत्तै अेक मुळक म्हारै हियै सांचरगी।

स्रोत
  • पोथी : साखीणी कथावां ,
  • सिरजक : भरत ओळा ,
  • संपादक : मालचन्द तिवाड़ी/भरत ओळा ,
  • प्रकाशक : साहित्य अकादेमी ,
  • संस्करण : प्रथम संस्करण
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