घणी अंधारी छ’ या रात, पण हुयो कांई

बगड़ गई छ’ दुक्खां री सौगात, पण हुयो कांई

छ’ चारूं मेर तरक्कयां रा खूब हंगामा

अठै छ’ दुक्खां री सौगात, पण हुयो कांई

तसाया खेतां खळाणां प’ आगरा औसाण

समन्दरां प’ छ’ बरसात, पण हुयो कांई

जमाने! थारा छळां री बसात प’ र्‌हां तो

हुई छ’ म्हांकी सदा मात, पण हुयो कांई

मटर गयो छ’ वा अरमानां रो हर् ‌यो मांडो

लुटी छ’ सपणां री बारात, पण हुयो कांई

म्हंनै मीच’र आंख्यां यकीन वां प’ कर्‌यो

म्हं सूं वां नै करी घात, पण हुयो कांई

स्रोत
  • पोथी : बिणजारो पत्रिका ,
  • सिरजक : पुरूषोत्तम यकीन ,
  • संपादक : नागराज शर्मा
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