जल थल महियल ढूंढिया, प्रेम रतन के काज।

तीनूं तजै तो पाइये, लोभ डर अर लाज॥

प्रेम रूपी रत्न को पाने के लिए मैंने पृथ्वी के जलाशयों, समुद्र आदि स्थल पर्वत आदि को भली प्रकार ढूंढा किंतु प्रेम कहीं नहीं मिला। प्रेम रूपी रत्न तब मिलता है जब लोभ डर लज्जा को छोड़ दिया जाता है।।

स्रोत
  • पोथी : विश्नोई संत परमानंद बणियाल ,
  • सिरजक : परमानंद बणियाल ,
  • संपादक : ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल ,
  • प्रकाशक : आदिवासी लोक कला एवं बोली विकास अकादमी, मध्यप्रदेश संस्कृति परिषद, भोपाल ,
  • संस्करण : प्रथम
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