इहाँ सु पंजर मन उहाँ, जय जाणइला लोई।

नयणा आड़ा वींझ वन, मनह आडौ कोइ॥

मेरा देह पिंजर तो यहाँ है और मन वहाँ मेरे साजन के पास है। वास्तव में यदि लोग समझे तो यद्यपि आँखों के अवरोधी घने जंगल है पर मन का अवरोधी कोई नही।

स्रोत
  • पोथी : राजस्थानी भाषा और साहित्य ,
  • सिरजक : कवि कल्लोल ,
  • संपादक : डॉ. मोतीलाल मेनारिया
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