हियड़ै भीतर पैस करि, ऊगौ सज्जण रूँख।

नित सूकइ नित पल्हवै, नित नित नवला दूख॥

मेरे हृदय में प्रविष्ट होकर साजन-रूपी वृक्ष उगा है यह नित्य सूखता है और नित्य पल्लवित होता है जिससे नित्य नये-नये दुःख देखने पड़ते हैं।

स्रोत
  • पोथी : राजस्थानी भाषा और साहित्य ,
  • सिरजक : कवि कल्लोल ,
  • संपादक : डॉ. मोतीलाल मेनारिया
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