कर्म खय सुं खायक भाव होय, ते पिण भाव जीव छें सोय।

कर्म खेंउपसम सुं खेंउपसम भाव, ते पिण छें भाव जीव इण न्याव॥

भावार्थ : कर्म का क्षय होने से क्षायिक-भाव होता है, वह भी भाव जीव है। कर्म का क्षयोपशम होने से क्षयोपशम भाव होता है, इस न्याय से वह भी भाव जीव है।

स्रोत
  • पोथी : भिक्षु वाङमय भाग 1 ,
  • सिरजक : आचार्य भिक्षु ,
  • संपादक : आचार्य महाश्रमण, मुनि सुखलाल, मुनि कीर्तिसागर ,
  • प्रकाशक : जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.) ,
  • संस्करण : प्रथम
जुड़्योड़ा विसै