धरा गगन झळ अूगळै, लद-लद लूआं आय।

चप-चप लागै चरड़का, जीव छिपाळी खाय॥

भावार्थ:- मरुधरा अग्नि की लपटें उगल रही है। वे ही लपटें लूओं पर सवार होकर रही है और उनका स्पर्श अंगो को जला रहा है। उनके डर के मारे जीव सिमट कर छिपे रहते हैं।

स्रोत
  • पोथी : लू ,
  • सिरजक : चंद्र सिंह बिरकाळी ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी ग्रंथागार, जोधपुर (राज.) ,
  • संस्करण : चतुर्थ
जुड़्योड़ा विसै