धीरा धीरा ठाकुरां, जमी न भागी जाय।
धणियाँ पग लूँबी धरा, अबखी ही घर आय॥
किसी वीर पुरुष की पृथ्वी पर अधिकार करने के लिए व्यग्र किन्हीं सरदारों के प्रति व्यंगात्मक उक्ति है- धीरे ठाकुरों! धीरे, पृथ्वी कही भागी नही जाती। पृथ्वी जिन वीर स्वामियों के पैरों से बंधी हुई है उनसे छूटकर मुश्किल से ही आपके घर आवेगी अर्थात उन वीर पुरुषों की भूमि पर जिनका जीवन उनकी पृथ्वी के साथ है अधिकार जमा लेना हंसी-खेल नही है।