पारथ पण्डव पत्र, हरि सारथि होय हांकै।

ज्वालानळ में जळत, बीलाड़ी बिच राखै।

सान्तनू को प्राण सजै, धर्म भुज सस्तर धारै।

ब्रज डूबत बारीस, अलख नख ढाब उबारै।

सिवरी कबंध यम व्याध शुक, क्रत गणिका संगत करै।

अणभव प्रभाव सुमिरण ‘अलू’, हित तारै चित नरहरै॥

महाभारत के युद्ध में स्वयं श्रीहरि ने अर्जुन का सारथि बन कर उसके रथ को हाँका, कुम्हार के नीवाह की धधकती हुई आग की लपटों में फँसे बिल्ली के नन्हे बच्चों को जिसने जीवित बचाये रखा, कुरुक्षेत्र में शांतनुपुत्र भीष्म का प्रण रखने के लिये धर्म की रक्षा करने वाली अपनी भुजाओं पर शस्त्र-ग्रहण किया और डूबते हुए ब्रज की रक्षा के लिए गोवर्द्धन पर्वत को अपनी कनिष्ठा अंगुलि के नख पर धारण किया। अलूनाथ कहते हैं— हे भगवान, तुम्हारे नाम-स्मरण और दिव्य प्रभाव से भीलनी, शबरी, दानव, कबंध, यम, ब्याध, गणिका और शुक जैसे पक्षी भी इस भव-सागर से पार उतर गये तो भला अन्य जीवों का उद्धार क्यों नहीं होगा? तुम्हारे नाम-स्मरण का प्रभाव अमिट है।

स्रोत
  • पोथी : सिद्ध अलूनाथ कविया ,
  • संपादक : फतहसिंह मानव ,
  • प्रकाशक : साहित्य अकेदमी ,
  • संस्करण : प्रथम
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