एक नगर सु बसै, मायं तिण ठाकुर निरगुण।
गिनका न्हावै गंग, मद्द तहाँ पियै बिरामण।
सर बिन फूलै कमळ, कमळ जिण भमर बइठ्टा।
गोरख तणै गिनान, देह जिण त्रिभुवण दिठ्टा।
जहँ पंच राव ठेलै तखत, हेक राव बैठो हिये।
बिण बळद सदा अरहठ बहै, पाणी बिन बाड़ी पिये॥
[प्रस्तुत छप्पय ‘उलट-बाँसी’ (विपर्यय) शैली में है।]
मनुष्य देह रूपी इस सुव्यवस्थित एवं श्रेष्ठ नगरी (शरीरमाद्यं खलु धर्म साधनम्) में निवास करने वाला गुणातीत (सत्व रज, तमादि गुणों से परे) निराकार जीवात्मा (‘ईश्वर अंश जीव अविनाशी’) ही इसका स्वामी है। इस काया नगरी में रहने वाली चित्त-वृति विषय-वासनाओं के कुसंग वश नगर-वधु के समान दूषित हो गयी थी जो अब योगारूढ़ अवस्था में निरुध्द होकर आत्म-ज्ञान रूपी गंगा में स्नान कर निर्मल हो गयी गई है। इसी बस्ती के निवासी सात्विक वृत्ति वाले ब्राह्मण की चित्त रूपी सुरता परमात्मा के साथ तदाकार हो जाने से ब्राह्मानंद रूपी सोम-रस पीकर आनंद मग्न हो रही है। कुंडलिनी शक्ति के जाग्रत होने पर षड्-चक्रों के विविध दलों वाले कमल बिना सरोवर के खिल उठे हैं। और उन पर निजानंद रूपी भ्रमर मँडराने लगे हैं। गुरु गोरख नाथ द्वारा प्रतिपादित सिद्ध-मार्ग पर चलने वाले साधक की कुंडलिनी शक्ति षड्-चक्रों का भेदन करती हुई जब सहस्त्र-सार (ब्रह्मारंध्र) पर आरोहण करती है तो इसी पिण्ड में सारे ब्रह्माण्ड के दर्शन हो जाते हैं। यही जीव-ब्रह्मौक्य-स्वरूपावस्था है।
पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों में प्रबल वेग से प्रवृत होकर चित्त रूपी सिंहासन को चलायमान कर देती हैं। परन्तु हृदय-कमल पर आसीन इस देह का स्वामी जीवात्मा निश्चल साक्षी भाव से देखता रहता है। यह प्राण रूपी अरहट बिना बैल के अबाध गति से निरन्तर चल रहा है और बिना पानी के आनंद रूपी बाड़ी हरी-भरी हो रही है।