अंग पवन उगटै, पित घर जाय प्रवेशे।

कफ पित एक हुई कंठ गति जाइ बैसै।

नाड़ि छांडि बहिजाय, धरै पिंड घरण पिलंगां।

धूण सीस उठि जाय वैद आगा हूं अंगां।

सिस सूर पट छूटै, अगगि तेज ब्रह्म थांनिक रहै।

तिण वार हुई हरि वाहरूं, कृपानाथ ऊदो कहै॥

स्रोत
  • पोथी : उदैराज बावनी (परंपरा भाग- 81) ,
  • सिरजक : उदैराज ,
  • संपादक : नारायण सिंह भाटी ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी शोध संस्थान, चौपासनी,जोधपुर।
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