आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति मनुष्य की जिंदगी में निसंदेह सबसे महत्वपूर्ण समस्या है। महत्वपूर्ण इसलिए नहीं कि उनका स्वतन्त्र रूप से कुछ मूल्य है। इंसान की जिन्दगी से अलग इनकी स्वयं में एक कानी कौड़ी भी कीमत नहीं। समय के साथ बदलती हुई मनुष्य की इन अगणित आवश्यकताओं को केवल एक छोटे से शब्द में सीधे रूप से स्पष्ट करना चाहें तो वह है जीवन। लेकिन आज मनुष्य की यही सबसे बड़ी विडम्बना है कि जिन्दगी के अस्तित्व को बनाये रखने के लिए आवश्यक इन समग्र भौतिक वस्तुओं ने एक दूसरे ही शब्द में अपने को सन्निहित कर लिया है, और वह है रोकड़ या पैसा!

पैसा मनुष्य के लिए भौतिक रूप से कतई आवश्यक नहीं है। किन्तु वही अनावश्यक मुद्रा आज इंसान की जिन्दगी का एकमात्र उद्देश्य या साध्य बन कर रह गई है, जिसकी प्राप्ति के लिए मनुष्य ने अपने जीवन और अपने शरीर तक को निमित्त बना रखा है। आर्थिक समस्या रोकड़ की समस्या नहीं है। वह जीवनयापन और विकास की समस्या है। मनुष्य के सामाजिक रागात्मक सम्बन्धों की समस्या है।

यह तो केवल प्रचलित व्यवस्था का ही दोष है कि मनुष्य की समूची भौतिक आवश्यकताएँ केवल पैसों में निहित हो गई हैं। आवश्यकताओं के साथ-साथ मनुष्य के समस्त सामाजिक सम्बन्ध, उसकी रागात्मक भावनाएँ, उसका कलात्मक सौन्दर्य-बोध, उसका वैज्ञानिक विकास, उसका समस्त परम्परागत ज्ञान, उसकी सांस्कृतिक थाती और प्रकृति पर उसकी निरन्तर विजय मतलब कि उसका सर्वस्व आज पैसों में समाहित हो गया है। आज मनुष्य के लिए मनुष्य की देह प्यारी नहीं, पैसा प्यारा है। चाम नहीं, दाम प्यारा है।

रोकड़ के भूत ने मनुष्य के शरीर से उसका कलेजा और दिल निकाल लिया है और तोंद के रूप में उसने पेट को इतना बढ़ा दिया है कि जिसके फलस्वरूप आज पेट ने मनुष्य को समूची देह, उसके मस्तिष्क, उसके मानस और उसकी समग्र चेतना को ही पचा डाला है। मनुष्य की पाचन-शक्ति आज इतनी तीव्र, उम्र और हिंसक बन गई है कि वह उसके शरीर और मन ही को खाये जा रही है। पेट की आग में मनुष्य के सारे रागात्मक सम्बन्ध, उसकी सुकोमल भावनाएँ जल कर नष्ट हुई जा रही हैं।

इस निर्जीव पैसे ने आज मनुष्य को भी ठीक अपने ही समान निर्जीव बना डाला है।

आज की व्यवस्था में मनुष्य के अन्तर्जगत की सारी सुकोमल भावनाएँ बाजार, प्रतियोगिता और रोकड़ की विभीषिका के कारण कुंठित, विकृत एवं नष्टप्राय हो रही हैं। आज पैसा केवल भौतिक वस्तुओं को खरीदने का ही साधन नहीं बल्कि मनुष्य की सुकोमल भावनाओं को और उसकी रागात्मक प्रवृत्तियों को भी खरीदने का साधन बन गया है। धान, तेल, नमक, मिर्च और लकड़ी के क्रय-विक्रय तक ही उसकी ताकत सीमित नहीं बल्कि उसकी पवित्र तुला पर प्रेम, वात्सल्य, स्नेह, ममता, मोह आदि सब कुछ खरीदा और बेचा जाता है।

नारी के जिस प्रेम, विरह और उसके सौंदर्य को लेकर साहित्य में कितना कुछ लिखा गया है और जाने कितना कुछ लिखना शेष उस नारी का प्यार आज टके सेर हो गया है। केशव और विहारी की नायिकाओं का आकर्षक शरीर आज नमक और हल्दी से भी सस्ता हो गया है। उनकी अनमोल चितवनें आज आना-पाइयों के वशीभूत हो गई हैं। कालिदास की शकुन्तला आज हर ऐरे-गैरे दुष्यंत को, जिसकी मुट्ठी में पैसा है, उसे अपना सुन्दर शरीर, अपना मन और अपना प्यार बेच रही है। सूरदास की भ्रमर-गोपिकाएँ आज मानव-देहधारी प्रत्येक गोपाल को अपना मक्खन-सा शरीर और दूध-सा पवित्र मन बेचने को विकल हैं, जो उनके पास पैसा लेकर पहुँचता है। प्रेम-नायिकाओं की कमल सी आँखें, चकित हिरणी सी उनकी चितवनें, बिंबाफल से उनके गुलाबी होंठ, रेशम की डोर से उनके पतले अधर, वासंग के समान उनकी केश-राशि, धनुष के समान तनी हुई उनकी भृकुटियाँ, कमल-नाल सी उनकी पतली कमर, पीपल के पत्ते सा उनका सुकोमल पेट, देवल के थम्भों सी उनकी सुडौल जंघाएँ, कमल के पत्ते सा उनका थिरकता मन, हंसनी के समान उनकी सुमधुर गति, मोरनी-सी उनकी लम्बी ग्रीवा जिन्हें पाने के लिए तपस्या और साधना करनी पड़ती थी आज वे पैसे की दानवी क्रयशक्ति के कारण इतनी सहज और सस्ती हो गई हैं कि उनमें कोई प्रेम आकर्षण शेष नहीं रहा। नारी की देह और उसका प्यार केवल शारीरिक आवश्यकता की वस्तु-मात्र बन कर रह गया जिसकी चौड़ी छाती, पतली कमर, भीनी पसलियों को पाने के लिए शिव को पूजने की आवश्यकता है और हिमालय जाकर गलने की और तपस्या करने की

उर चवड़ी कड़ पातळी, झींणी पासळियांह।

कै मिळसी हर पूजियां, कै हेमाळे गळियांह।।

केवल अंटी में पैसा और पाने की इच्छा भर होनी चाहिए। इससे कुछ अधिक, इससे कुछ कम। आज नारी जैसी सहज प्राप्य वस्तु के लिए तोप, तलवार, युद्ध और खून बहाने की रत्ती भर आवश्यकता नहीं। पैसे में खून, तलवार और युद्ध से अधिक ताकत है।

मेघदूत में वर्णित अलका नगरी की सुन्दर यक्ष-कुमारियाँ जिन्हें पाने की देवता भी अभिलाषा करते थे, उन्हें आज पैसे की अमोघ शक्ति के बूते पर सहज ही हथियाया जा सकता है। केवल अंटी में पैसा और पाने की साधारण इच्छा भर होनी चाहिए। इससे कुछ अधिक, इससे कुछ कम।

अलका नगरी की उन सुन्दर यक्ष-कुमारियों के प्रेमातुर हृदय में इतनी उत्कट लज्जा की गहनतम भावना अंतनिहित थी कि अपने अभिन्नवम प्रेमी के सम्मुख भी उन्हें क्रीड़ा के समय रत्न-प्रदीप का प्रकाश तक सह्य नहीं होता था। मुट्ठी भर कुंकुम फेंक कर उनका संकोचशील मन उन्हें बुझाने की चेष्टा करता था

नीवीवन्धोच्छवसितशिथिलं यत्र बिम्बाधराणां

क्षौमं रागादनिभूतकरेष्वाक्षिपत्सु प्रियेषु।

अर्चिस्तुङ्गानभिमुखमपि प्राप्य रत्नप्रदीपा

न्हृीमूढ़ानां भवति विफलप्रेरणा -चूर्णमुष्टिः।

उत्तर मेघ

(वहाँ कामातुर प्रेमी लोग जब (अविनीत होकर) अपने चपल हाथों से बिम्बाफल के समान ललित अधरों वाली अपनी प्रियाओं की वसन-ग्रंथियाँ ढीली करते हैं, और प्रमोद्वेग से दुक्कूल को दूर कर देते हैं तो उत्कट लज्जा से विमूढ़ वे रमणियाँ (प्रकोष्ठ का प्रकाश बुझाने के हेतु से) उज्ज्वल जगमगाते हुए रत्नदीप की ओर मुट्ठी भर कर कुंकुम चूर्ण फेंकती हैं। किन्तु प्रदीप की तरह जगमगाता हुआ रत्न बुझता नहीं है और उन सुन्दर यक्ष-वनिताओं की चेष्टा अकारथ ही जाती है।)

अलका नगरी के उन रत्नप्रदीपों की भाँति इस रोकड़-नगरी में सोने और चाँदी के निर्धूम अक्षय प्रकाश को भी यदि आज की वेबस सुकुमारियाँ घृणा और आत्मग्लानि से दुखी होकर मुट्ठी भर रेत से बुझाने की चेष्टा करें तो इनकी चेष्टा भी अकारथ जायेगी। सोने के इस प्रकाश ने आज की विवश नारी को उसको देह के अलावा उसके मन से भी अनावृत कर दिया है। और मनुष्य को क्षुद्र, निम्न स्वार्थी और क्रूर बना दिया है, जिसके फलस्वरूप मानवीय अंतर्जगत विषाक्त, हीन, विक्षिप्त और द्वेषी हो गया है। इस तरह के वातावरण में प्रेम, ममता एवं स्नेह आदि ललित भावनाएँ पनप नहीं सकतीं। इंसान और इंसान के बीच शुद्ध मानवीय प्रेम, वस्तु और अर्थ के अटूट प्रलोभन के कारण अवरुद्ध हो गया है। उसकी सहज अभिव्यक्ति का श्रोत निरुद्ध हो गया है। तब आज की विवश मानवता सिनेमा के सस्ते, कलाविहीन और सौंदर्य-रहित मनोरंजन, कामोत्तेजक रंगीन उपन्यासों की उच्छं खलता और तुच्छ कोटि की जासूसी ऐयारी कहानियों की अविकसित जिज्ञासायुक्त अवास्तविकता में अपने को भुलाने और क्रूर यथार्थ से पलायन करने की निष्फल चेष्टा में उलझ गई है। इस अराजकतापूर्ण भौतिक विकास से त्रस्त, रागात्मक संबन्धों से सर्वथा वंचित मानवता छिछली कामोत्तेजना, प्रमत्त कामोद्वगों को ही प्रेम के नाम पर स्वीकार करके अपने को भ्रांति में रखने की अकारथ चेष्टा ही में मगन हो गई है। क्षुद्र और हीन वस्तु को प्रेम का सुसंस्कृत सुन्दर नाम देकर अपने को छल रही है। निसन्देह आज के मनुष्य का हृदय पारस्परिक प्यार जैसी उदात्त भावनाओं से शून्य और यांत्रिक हो गया है। पैसों की खन-खन ही उसके विक्षिप्त मन का मधुरतम संगीत है। नारी के प्रति उसका बहु-प्रचारित प्यार वास्तव में क्षणिक कामुकता के सिवाय और कुछ भी नहीं। प्रेम की गहराई और तीव्रता के अभाव में विरह की वेदना भी उसके हीन स्वार्थी मन को विचलित नहीं करती। आज की इस संकटकालीन स्थिति में यक्ष, शकुन्तला, पद्मावती, ऊजळी, भ्रमर-गोपिकाओं, प्रेम-नायिकाओं के प्रेमोल्लास और उनकी विरह-व्यथा का महत्व तो और भी सहस्र गुना बढ़ जाता है। इन प्रेम-कथाओं का विरहसंत्ताप हमारे जीवन की कटुताओं को मधुर बनाता है। अर्थ - जाल में फंसे हुए मनुष्य को मुक्ति का पाठ पढ़ाता है। मानवीयता से वंचित मानव को अपने वास्तविक स्वरूप की प्राप्ति का आभास प्रदान करता है। इंसान की जिन्दगी से बिछुड़ी हुई इंसानियत का पुनः उससे साक्षात्कार करवाता है। इन प्रेम-कथाओं में मनुष्य के अंतराल की पवित्रतम थाती संचित है जो सदैव अक्षुण्ण बनी रहेगी।

आनन्दोत्थं नयनसलिलं यत्र नान्यैनिमित्तैर्नान्यस्तापः कुसुमशरजादिष्टसंयोगसाध्यात्।

नाप्यन्यस्मात्प्रणयकलहाद्विप्रयोगपत्ति वित्तेशानां खलु वयो यौवनादन्यदस्ति॥

उत्तर मेघ

(वहाँ अलका नगरी में, हे मित्र! यक्षों की आँखों में आनन्द के सिवाय कोई अन्य कारण से आँसू नहीं छलकते; अभिलषित संयोग से निवर्त्तनीय कामजनित ताप के अतिरिक्त वहाँ यक्षों को किसी अन्य ताप का अनुभव नहीं होता; वहाँ प्रेम की कलह के अतिरिक्त और किसी कारण से उन्हें विरह का सन्ताप नहीं भोगना पड़ता और वहाँ यौवन के सिवाय कोई अवस्था ही नहीं होती। ) ( यौवन और आनन्द का अखण्ड साम्राज्य है वहाँ!)

लेकिन आज! आज तो इससे बिलकुल विपरीत हो स्थिति है। आँखें निरन्तर आँसुओं से छलछलाई रहती हैं, लेकिन वे प्रेम और आनन्द के आँसू नहीं हैं। सिवाय प्रेम एवं हर्ष के वे शेष सभी कुछ के प्रतीक हैं भूख, दुःख, बीमारी आदि सभी व्यथाओं के सहज परिणाम! ताप, जलन, ज्वाला सर्वत्र व्याप्त है पर वह मानवीय वियोग और विरह-व्यथा की परिचायक नहीं। मनुष्य और मनुष्य के बीच संवेदना नाम की तो कोई चीज ही नहीं रही। आज मनुष्य के संतापों की सीमा नहीं है; पर उनमें विरह, सहानुभूति का अंश बहुत ही थोड़ा है। सन्ताप केवल आर्थिक अभावों का संताप! जवानी के साथ ही बुढ़ापा धमकता है। आर्थिक परवशता यौवन को चारों ओर से जकड़ कर उसे पंगु और कुंठित बना देती है। बीमारी, जर्जरित-वृद्धावस्था और क्षोभ का आज निर्बन्ध साम्राज्य छाया हुआ है। प्यार और धन के पारस्परिक अन्तविरोध ने मनुष्य को मनुष्य से दूर कर दिया है। आपसी मिलन और प्रेम असम्भव नहीं तो कम से कम दुश्वार अवश्य हो गया है। आधुनिक व्यवस्था मनुष्य के जीवन, प्राण, मानसिक विकास, प्रेम और त्याग के सौदे पर भौतिक वस्तुओं का उत्पादन बढ़ा रही है। यह मंहगा सौदा है। मनुष्य के लिए मनुष्य का प्यार ही उसकी सर्वोपरि वस्तु है और प्यार का अभाव ही उसकी विकटतम निर्धनता। निर्धनता की इस विभीषिका से बचते रहने के लिए इन प्रेम-कथाओं का प्रेम-तत्व मनुष्य को निरन्तर सावधान करता रहता है। जिन्दगी के संघर्ष में उसे शक्ति प्रदान करता है। प्रेम-कथाओं में वर्णित प्रेम की सुकोमलता मनुष्य को दुर्बलता की ओर नहीं, निश्चल दृढ़ता की ओर अग्रसर करती है। विरह की गहनतम व्यथा श्रोता या पाठक के मन में सुख और आनन्द का रूप धारण कर लेती है। ऐसा आनन्द कि जिसका उद्भव व्यथा से होता है। इन प्रेम-कथाओं का यह विरोधी तत्व मनुष्य के जीवन में संगति और समन्वय की सृष्टि करता है। मानस का परिमार्जन करके उसे उदार और उदात्त बनाता है।

टोळी सूं टळतांह, हिरणां मन माठा हुवै,

वाल्हा बिछड़ंतांह, जीणौ किण विध जेठवा।

जब पशु-जगत में भी आपसी विछोह उनके मन को खींचता है, हिरणों का मन अपनी टोली से दूर होते हुए जब दूर नहीं होना चाहता तब एक मनुष्य के लिए यह क्योंकर सम्भव हो कि अपने प्रियतम के बिछुड़ने पर वह जिंदा रह सके।

नैणां नेह छिपाय, जिऊं किता दिन जेठवा।

नयनों में नेह को छिपा कर बाह्य - जगत के सारे दृश्य-वैभव को पाकर भी क्या हृदय की वेदना को शांत किया जा सकता है? मानव के अंतराल में सोये हुए मौन प्रेम का एक मात्र उत्तर है नहीं। प्यार बदले में केवल प्यार चाहता है। ममता का सीधा और न्यायपूर्ण लेन-देन ममता से है। भावना के बदले वस्तु का सौदा मानवीय दयनीयता का परिचायक है। भावनाओं के अतुलनीय ऐश्वर्य को किसी भी बहुमूल्य भौतिक वस्तु से खरीदा नहीं जा सकता। ऊजळी प्यार के बदले में प्यार का यह अधिकार लेकर ही जेठवा के पास गई। लेकिन राजकुमार जेठवा प्यार के उस अधिकार का ठीक से मूल्यांकन नहीं कर सका। साधारण मनुष्यों की सहज प्रक्रियाओं से राजकुमार की चेतना ऊपर होती है। राज-सत्ता प्यार के बल पर नहीं, दंड के बल पर संचालित होती है। सही है कि विचार और भावना क्रिया का मार्ग-दर्शन करते हैं, फिर भी वह क्रिया है जो चेतना को जन्म देती है। इसीलिए राजकुमार जेठवा की चेतना दरबारी मान्यताओं, राजसत्ता की प्रशासनिक क्रियाओं का ही परिणाम थी। राजा के दिल में क्रूरता के स्थान पर प्रेम का प्रादुर्भाव हो जाय तो राज्य का संचालन नहीं हो सकता। समस्त मानवीय गुणों का अभाव ही राजा का एकमात्र गुण होता है। इंसान जब पूर्णतया मर जाता है तभी उस भौतिक देह के भीतर राजा का जन्म होता है। लेकिन ऊजळी की नारी देह के भीतर मानवीय भावनाएं अकृत्रिम रूप से विद्यमान थीं। उसका प्यार बदले में प्यार चाहता था, सौदा नहीं। किन्तु इसके विपरीत राजकुमार जेठवा को प्यार के बदले में राज्य का सौदा इतना मँहगा पड़ता था कि जिसकी कल्पना भी उसे मान्य नहीं थी। राजमहल के सामने विलाप करती हुई ऊजळी का विश्वास और उसकी आशा ध्वस्त हो गई तो उसने अपने प्रेमी राजकुमार को उलहना देते हुए कहा

आव्यां आशा करे, निराश ऐने तो बाळिअे,

तब डुळ टुंकारे, भोंठप झाझी भाँणना।

(जो आशा-भरे हृदय से आता है उसे निराश होकर लौटना शोभा नहीं देता। हे भांण जेठवा के पुत्र, तुम्हारी ऐसी तुच्छता से मुझे लज्जा आती है।)

लेकिन जिन राजमहलों की गर्वोन्नत उच्चता के सम्मुख जेठत्रा के विश्वासघाती प्रेम को ऊजळी जितना तुच्छ करके मान रही थी, वह तुच्छता ही तो जेठवा की दृष्टि में सर्वोच्च मान्यता थी, जिसने उसके प्रेम को नियन्त्रित कर रखा था। उसने ऊजळी को बार-बार यही समझाने की चेष्टा की कि वह प्रेम की भूख को सदा के लिए बिसार दे। यह नितान्त बावलापन है। पेट की भूख हाँ यही तो दुनिया में एकमात्र सच्चाई है। इस सच्चाई की ज्वाला से वह जब कभी संतप्त हो, निसंकोच धूमली नगर चली आये। राजकुमार जेठवा उसकी सभी भौतिक आवश्यकताओं को पूरा करने का वचन देता है। प्रेम का कौल भी पूरा हुआ तो कोई बात नहीं। उस कौल के बदले में यदि गरीब ऊजळी को ये सुविधाएँ हासिल हो जाती हैं तो वह लाभ ही में रहेगी।

कण ने दाणा कोय, भण्य तो दऊं गाडां भरी,

हैये भूलूं होय, तो आभपरे आवे ऊजळी।

(यदि ऊजळी कहे तो जेठवा उसे अनाज की गाड़ियाँ भर कर दे सकता है।)

और भविष्य में भी वह जब कभी भूखी हो तो वह निसंकोच यहाँ आकर धान ले जा सकती है। आखिर जेठवा ने उसके साथ प्यार जो किया है। उसके साथ कई दिनों तक प्रणय क्रीड़ाएँ जो की हैं। वह इतना कृतघ्न नहीं कि उन प्रणय-क्रिड़ाओं को भूल जाये। ऊजळी, यदि वह चाहे तो उसे खजाने से धन मिल सकता है। जमीन-जायदाद मिल सकती है। ऊजळी भी आखिर कोई नादान बालिका तो है नहीं। अपना नफा-नुक्सान सोचने की उसकी भरपूर उम्र हो गई है।

अन्त में एक नेक कीमती सलाह जेठवा ने ऊजळी को और भी दी

आंयां थी जाने ऊजळी, नवे नगर कर नेह,

जाने रावळ जामने, छोगाळो दे छेह।

यदि ऊजळी को अनाज नहीं चाहिए और केवल राजा से ही विवाह करने को वह आतुर हो तो वह सुखपूर्वक नवानगर के राजा रावळराम से अपना प्रेम प्रकट करे। रसिक राजा ऊजळी को धोखा नहीं देगा। ऊजळी की साध अवश्य पूरी होगी।

एक प्रेमी राजकुमार अपनी प्रेमिका को इससे बढ़िया और क्या नेक सलाह दे सकता है? लेकिन बावळी ऊजळी ने इन नेक सलाहों पर बिलकुल गौर नहीं किया। उसका प्रेमी मन तो प्यार के बदले में केवल प्यार चाहता था। अनाज से भरी गाड़ियों की उसे चाह थी और राजा रावळराम से विवाह करने की तमन्ना। वह तो जिससे प्रेम करती थी उसीसे शादी करना चाहती थी। उसीके साथ एक आर्थिक सामाजिक इकाई में बँधना चाहती थी। उसकी दृष्टि प्रेम और विवाह को विच्छिन्न करके देख ही नहीं सकती थी।

आज भी हर ऊजळी के सम्मुख धान की भरी गाड़ियाँ और राजा रावळ-राम से विवाह करने का प्रलोभन कदम-कदम पर अपने विभिन्न रूपों में प्रकट होता है और मन मार कर अपने ही हाथों में अपने प्यार का गला घोंट कर अनाज से भरी गाड़ियों राजा रावळराम को स्वीकार करना पड़ता है। पेट की भूख सभी ललित भावनाओं और उदात्त विचारों को पचा कर नष्टप्राय कर डालती है।

करीब-करीब सभी प्रेम-कथाओं में विश्वासघात, निष्ठुरता, कृतघ्नता आदि के हीन प्रसंग विद्यमान रहते हैं, लेकिन श्रोता और पाठकों पर इतना प्रभाव सर्वथा उलटा ही पड़ता है। प्राकृतिक दुर्बलताओं की स्पष्ट अभिव्यक्ति विरोधी दिशा में अपना प्रभाव दर्शाती है। वह हमें दुर्बलताओं के प्रति जागरूक सजग बनाती है। स्वयं कथा को भी इस तरह के निष्ठुर प्रसंग दृढ़ और प्रभावशाली बनाते हैं। उन हीन चित्रणों से ही हीन भावनाओं का उन्मूलन होता है। प्रेम-कथाओं के द्वन्द्वात्मक चरित्र की यह अपनी विशेषता है।

नारी की देह पाकर भी ऊजळी केवल नारी मात्र नहीं है। वह एक प्रेमिका है विशुद्ध प्रेमिका! नारी देह की तृप्ति के लिए दुनिया मनुष्यों से भरी पड़ी है। पर इन अगणित मनुष्यों की भीड़भाड़ में उसका प्रेमी तो केवल एक ही है। उसके मन का प्रेमी ही उसके शरीर का उपयोग कर सकता है।

आवै और अनेक, ज्यां पर मन जावै नहीं,

दीसै तो बिन देख, जागा सूनी जेठवा।

अपने प्रेमी के अभाव में ऊजळी को सर्वत्र इस मनुष्य जगत में सूना-ही-सूना दिखलाई पड़ने लगा। केवल पशु और पक्षी जगत में उसे आदर्श दिखलाई दिये। केवल उनका प्रेम ही प्रेम की प्रदीप्त लौ को प्रज्वलित रखेगा

सारस मरता जोय, सारसणी मरसी सही,

लाखीणी लोय, जग में रहसी जेठवा।

यह कैसी विडम्बना है कि पशु-पक्षियों का प्रेम मनुष्य के लिए आदर्श की वस्तु बन गया। मनुष्य को प्रेम की मिसाल के लिए पशु-जगत की ओर दयनीय दृष्टि से निहारना पड़ रहा है। मनुष्य का अंतर्जगत इतना निर्धन कैसे हो गया? सारस को मरते देख कर निश्चित रूप से सारसणी मरेगी। जब उसके जीवन का एक मात्र आधार ही मिट गया तो वह कैसे जीवित रह सकेगी। दुनिया का कोई भी भौतिक ऐश्वर्य प्रेम की अनमोल लौ को बुझा नहीं सकता।

जग में जोड़ी दोय, सारस नै चकवा तणी,

तीजी मिळी कोय, जो-जो हारी जेठवा।

मनुष्य के इतने लम्बे-चौड़े संसार को छान मारा, कहीं भी दो प्रेमियों की अमिट जोड़ी दिखाई दी। दुनिया युगों से प्रेम की दो युगल जोड़ियों की साक्षी रही है एक सारस और दूसरा चकवा। ऊजळी की संतप्त आँखें भी निहार-निहार कर हार गईं पर उसे तीसरी जोड़ी दिखाई दी क्योंकि आर्थिक परवशता और सामाजिक बन्धनों ने उसके मिलन उसकी दाम्पत्य भावना को खण्डित कर दिया था, इस कारण सर्वत्र विलगाव और विभेद दृष्टिगोचर होना ही उसके लिए स्वाभाविक था।

यहाँ यह निर्देश करना भी असंगत होगा कि चकवा, सारस, चातक और हिरण आदि ये काव्य-प्रतीक केवल मानव-हृदय की गहनतम अनुभूतियों को व्यंजित करने के संकेत मात्र हैं। मानवीय जगत पर पशु-जगत की श्रेष्ठता को स्थापित करने की खातिर इन विचित्र उदाहरणों की पुष्टि के द्वारा किसी भी तरह की प्रामाणिकता सिद्ध करना इन काव्य-प्रतीकों की कभी मंशा नहीं रही। पशु-पक्षियों और मनुष्यों की यह पारस्परिक तुलना पशु-जगत की मानवीय जगत से श्रेष्ठता की बोधक नहीं है। अपनी वैयक्तिक प्यार-भावना के अभाव को तीव्र और गहन रूप देने के लिए ये काव्य-प्रतीक केवल निमित्त मात्र हैं और जीव-शास्त्र के अनुसार परख करने पर तो यह बात बिलकुल साफ हो जाती है कि प्रेम और ममता के क्षेत्र में मनुष्य पशु से सदैव श्रेष्ठ रहा है और श्रेष्ठ है भी। पशुओं में कुछ उदाहरण ऐसे मिल सकते हैं जिनसे नर और मादा के पारस्परिक लगाव आकर्षण की गहनता प्रकट होती है। परन्तु फिर भी उस गहनतम आकर्षण के लिए पशुओं को इसके लिए श्रेय नहीं दिया जा सकता। क्योंकि उनका वह सहज लगाव केवल प्रकृतिगत एक जन्मजात प्रक्रिया है, सजग चेतना का परिणाम नहीं। इसके विपरीत मनुष्य की प्यार-भावना उसकी अपनी सृष्टि है, प्रकृति की अचेतन प्रक्रिया मात्र नहीं।

क्योंकि सामाजिक सम्बन्धों के सभी सांवेगिक तत्व प्रेम, श्रद्धा, भक्ति, ममता, स्नेह, वात्सल्य, मोह आदि मनुष्य की अपनी सृष्टि है इसलिए मनुष्य के विकास के साथ इन समस्त रागात्मक सम्बन्धों में भी विकास और परिवर्तन होता रहा है। इनका स्वरूप कभी एक सा नहीं रहता। सामाजिक आर्थिक परिस्थितियों के बदलने के साथ ये तमाम सांवेगिक तत्व भी बदले और विकसित हुए हैं। व्यक्ति के सांवेगिक तत्व और सामाजिक सम्बन्धों के संघर्ष से ही उसका अन्तर्जगत निर्मित होता है और यह निरन्तर संघर्ष ही समाज के विकास की अन्तहीन कहानी है।

समाज के विकास की इस अन्तहीन कहानी से प्रेम कोई स्वतन्त्र या जुदा वस्तु नहीं है। इसलिए उसकी भौतिक और मूर्त सत्ता है। उसे कोई अमूर्त या नैसर्गिक वस्तु मानना वास्तविकता को अस्वीकार करना है।

साधारणतया सभी प्रकार के प्रीति-सूत्र, सांवेगिक या रागात्मक सम्बन्धों को प्रेम की संज्ञा दी जाती है। इस प्रचलित भ्रांति को स्पष्ट करने के लिए केवल इतना ही समझना आवश्यक है कि शब्द किसी भी विचार, भावना मूर्त-अमूर्त यथार्थ के प्रतिबिम्ब या प्रतिरूप नहीं होते। केवल संकेत मात्र होंते हैं अपूर्ण संकेत। भाषा के इस प्रकृत दुर्बल पहलू को ठीक से समझने पर शब्द के वास्तविक स्वरूप का स्पष्टीकरण हो जाता है।

एक ओर तो भाषा की यह प्रकृत निर्बलता और दूसरी ओर हमारे अन्तर्मन का समान मध्यवित्ती स्नायु-केन्द्र। समस्या और भी विकट हो जाती है। व्यक्ति और विभिन्न तत्वों का पारस्परिक सम्बन्ध, मूल अंतरा प्रवृत्ति की बाह्य व्यंजना को विभिन्न रूप प्रदान कर देता है। लेकिन भाषा की निर्बलता के कारण उन सभी विभिन्न स्वरूपों को विभिन्न शब्दों से सम्बोधित करना सम्भव नहीं होता। इसीलिए विचारों और भावनाओं के प्रति भ्रान्ति की उत्पत्ति स्वाभाविक हो जाती है। सभी प्रकार के प्रीति-सम्बन्धों के बारे में यह बात तो निश्चित ही है कि प्रीत के लिए किसी किसी आलंबन का होना अनिवार्य है। प्रेम अकेले नहीं होता, वह अन्य व्यक्ति के माध्यम से अपनी प्राण-प्रतिष्ठा ग्रहण करता है। आलंबन की भिन्नता के साथ-साथ स्थान, समय, स्थिति की भिन्नता के फलस्वरूप एक व्यक्ति के विभिन्न व्यक्तियों के साथ अनेकों रागात्मक सम्बन्ध होते हैं। मूल अंतस प्रवृत्ति एक होने पर भी आलंबन के बदलने पर पारस्परिक सम्बन्ध-विशेष में भी तब्दीली जाती है। संपर्क की विभिन्नता से ही गुण का निर्माण होता है। यदि इकाइयाँ भिन्न हैं तो गुण कैसे समान हो सकता है? संपर्क के संयोग की विभिन्न अवस्थाओं के अनुरूप संपर्क की वियोगावस्थाएँ भी विभिन्न होती हैं। और वियोग की अनुभूतियाँ भी संपर्क-विशेष के कारण अनेकों प्रकार की होती हैं। लेकिन शब्दों की मर्यादा अपने सीमित दायरे में ही इन विभिन्नताओं को अभिव्यक्ति प्रदान करती है। तो शब्द स्वयं यथार्थ है और वह यथार्थ का निश्चित बोधक ही। वह तो यथार्थ को समझने की एक मानव-निर्मित अभिज्ञता है।

यथार्थ को समझने की यह मानवीय अभिज्ञता विकास के दौरान में सदा बदलती रहती है। इस कारण यथार्थ के साथ मनुष्य का सम्बन्ध कभी एक-सा नहीं रहता, वह भी सदा बदलता रहता है। इस निरंतर क्रम में जो शब्द परम्परागत प्रचलन के कारण स्थिर जड़ता का निश्चित रूप धारण कर लेते हैं वे यथार्थ के प्रति अपनी अभिज्ञता की शक्ति को खो बैठते हैं। विकास में सहायक होने के बनिस्पत वे उसके बाधक हो जाते हैं। विकास में बाधा उपस्थित करने वाले शब्दों को मनुष्य छोड़ता रहता है। और जो शब्द अपने बाह्य आकार के स्थिर रूप को बना रख कर भी अपने में सन्निहित व्यंजना को बदलते रहने की गतिशीलता कायम रखते हैं, केवल उनमें ही मनुष्य की निरंतर बदलती हुई भावनाओं को व्यक्त करने की क्षमता शेष रहती है। इसलिए शब्दों के प्रति हमारी धारणा निश्चित और रूढ़िबद्ध नहीं होनी चाहिये। क्योंकि यथार्थ की नई जानकारी और अंतस प्रवृत्तियों की विकसित अभिज्ञता का पारस्परिक सम्बन्ध, शब्द में नूतन सांकेतिक तत्व को प्रवह्मान करता रहता है।

इसलिए स्पष्ट है कि भाषा के माध्यम से अभिव्यक्ति प्राप्त करने वाला प्रेम-तत्व भी कभी एक-सा नहीं रहा। वह भी सदा बदलता रहा है। प्रेम-विश्व और जीवन का संचालन नहीं करता, बल्कि विश्व और जीवन के द्वारा ही प्रेम का संचालन होता है। परिवर्तित जीवन के हाथों अपना अस्तित्व ग्रहण करने के फलस्वरूप प्रेम में भी परिवर्तन होता रहता है। जीवन और प्रेम का विकसित क्रम द्वैत नहीं अद्वैत है।

केवल शब्द और भाषा ही नहीं, उनके द्वारा अभिव्यक्त होने वाले हमारे परम्परागत प्रेम-काव्य भी, जो निश्चित रूप से एक काव्यात्मक रूप ग्रहण कर चुके हैं, समय के साथ उनके तात्विक विषय में भी थोड़ा-बहुत परिवर्तन हो जाता है। परिवर्तन कोई स्वयं प्रेम-काव्य में नहीं बल्कि शब्दों की सांकेतिक शक्ति के परिवर्तन-स्वरूप एवं वस्तुजगत और अन्तर्जगत की नई अभिज्ञता के कारण नई पीढ़ी द्वारा उन प्रेम-काव्यों को समझने की अनुभूति में परिवर्तन! समय के हिसाब से प्राचीन होते हुए भी भाव ग्रहण करने वाली अनुभूतियों में नवीनता की वजह से ये प्रेम-काव्य उसी निर्धारित शैली में अपना नया रूप ग्रहण करते रहते हैं। प्रेम-कथाओं के द्वन्द्वात्मक चरित्र की यह अपनी दूसरी विशेषता है।

यह स्वीकार कर लेने के बाद कि शब्द यथार्थ का प्रतिरूप नहीं होता, यह तथ्य भी पूर्णतया स्पष्ट हो जाता है वास्तविक प्रेम और प्रेम की काव्या-भिव्यक्तियों में परस्पर क्या सम्बन्ध है। मनुष्य-जीवन में जो भाषा और शब्द की सार्थकता है, प्रेमियों के जीवन में इन प्रेम-काव्यों की भी ठीक वही सार्थकता है। मनुष्य और भाषा का जो पारस्परिक सम्बन्ध है ठीक वैसा ही प्रेमी के साथ इन प्रेम-कथाओं का सम्बन्ध है। मनुष्य द्वारा निर्मित की जाने पर भी भाषा मनुष्य को पुनः प्रभावित करती रहती है, उसे सशक्त और विकसित करती रहती है, उसी प्रकार ये प्रेम-काव्य भी प्रेमियों को अपने अस्तित्व से प्रभावित करते हैं। प्रभाव की इस क्रिया-प्रक्रिया में निरन्तर दुतरफा विकास होता रहता है। जिस प्रकार भाषा एक बार अस्तित्व में आने पर एक स्वतन्त्र भौतिक शक्ति का रूप धारण कर लेती है और विकास के अपने स्वतन्त्र नियमों द्वारा अनजाने अनुशासित होती रहती है, उसी प्रकार ये प्रेम-कथाएँ भी स्वतंत्र रूप से एक भौतिक शक्ति का काम करती हैं। स्वयं अपने द्वन्द्वात्मक रूप से इनका विकास होता रहता है जिसमें परिवर्तन और परम्परा दोनों का समान रूप से दखल रहता है। ये प्रेम-कथाएँ विशिष्ट शैली में विशिष्ट अभिव्यक्तियाँ हैं। जिस प्रकार शब्द स्वयं यथार्थ नहीं होता, उसी प्रकार शब्दों के माध्यम से अपना जीवन ग्रहण करने वाली इन प्रेम-कथाओं में भी अंतस-प्रवृत्तियों की प्रेम-भावना का वास्तविक चित्रण नहीं है। ये प्रेम-कथाएँ, प्रेम की प्रतीक नहीं, बल्कि प्रेम-भावना की अभिज्ञता के काव्यात्मक संकेत चिन्ह हैं, जिनका स्वतन्त्र रूप से कलात्मक विकास होता रहता है। सामाजिक विकास और मनुष्य-जीवन में अन्योन्याश्रित सम्बन्ध होने पर भी यह कहना कि ये प्रेमाभिव्यक्तियाँ वास्तविक प्रेम का हू-बहू चित्रण या सहज प्रतिबिंब मात्र हैं, सर्वथा अवैज्ञानिक और भ्रान्तिमूलक है। ये प्रेम-काव्य एक तो प्रेमी को अपनी अनुभूतियों का माध्यम प्रस्तुत करती हैं और दूसरी ओर उसके मन में नई अनुभूतियों का संचरण भी करती हैं, जिससे नये काव्यों की सृष्टि का आधार जुड़ता है। समय और समाज के साथ अविच्छिन्न सम्बन्ध होते हुए भी इन प्रेम-काव्यों का अपना स्वतन्त्र इतिहास है।

प्रेम एक अत्यन्त संश्लिष्ट क्रिया है। भाषा के बिना जिस प्रकार मनुष्य के अन्य सभी भौतिक या मानसिक विकास सम्भव नहीं थे उसी प्रकार यदि भाषा नहीं होती तो प्रेम भी सम्भव नहीं होता। क्योंकि प्रेम मनुष्य की स्वयं अपनी सृष्टि है, जिसको उसने अपने सामाजिक जीवन में विकसित किया है। पशुओं की भाँति भाषा के बिना मनुष्यों में भी प्राकृतिक मैथुन और उससे जुड़ा हुआ जन्मजात अचेतन लगाव निसन्देह रूप से उसकी भौतिक देह में मौजूद रहता, किन्तु मैथुन और प्रेम दोनों एक बात नहीं है। यह सही है कि प्रेम में कामासक्ति रहती है, पर इसके विपरीत यह कदापि सही नहीं है कि कामासक्ति में भी प्रेम हो। काम-प्रवृत्ति से उत्पन्न होने पर भी प्रेम काम-भावना से सर्वथा एक भिन्न वस्तु है। केवल भिन्न ही नहीं, अन्तर्विरोधी भी। गुलाब का पौधा जमीन में पैदा होने पर भी, तात्विक गुणों की समानता के बावजूद भी मिट्टी नहीं है। वह मिट्टी से सर्वथा भिन्न वस्तु है। अन्तर्विरोधी भी। मिट्टी में गन्ध है तो उसमें भीनी सुगन्ध। मिट्टी शुष्क है तो वह फूल अत्यन्त सुकोमल। मिट्टी मैली और कुरूप है तो गुलाब का फूल गुलाबी, हरा और सुन्दर है।

प्रेम मैथुन का सहज परिणाम नहीं है। उसमें तो प्रेम के बनिस्पत हिंसा क्रूरता का सन्निवेश है। भूख के समान काम भी सौंदर्यरहित, क्रूर और अनियन्त्रित है। सम्भोग के समय काटना, दबोचना और पशुवत हो जाना, यही काम का अपना स्वभाव है। कामासक्ति में केवल मैथुन की ही एकमात्र अपेक्षा रहती है और क्रिया के पश्चात् भी प्रेम उत्पन्न नहीं होता, बल्कि अरुचि, ग्लानि जैसी हीन भावनाएँ पैदा होती हैं। प्रेम में कामासक्ति की मूल प्रेरणा होते हुए भी उसका अपना स्वरूप और अपना अस्तित्व है।

प्रेम का मूल आधार है सम्पर्क। निरन्तर साहचर्य, जो नारी में उसकी देह के अलावा लालित्य, गुण, सौन्दर्य और स्वभाव की भी अपेक्षा रखता है। सम्पर्क के बीच उत्पन्न हुए प्रेम को भाषा, कला, काव्य, और सौन्दर्य-बोध की भावना उच्चता, दृढ़ता, मर्मज्ञता और सुकोमलता प्रदान करती है। काम-प्रवृत्ति मनुष्य को स्वार्थी, हीन, संकीर्ण, तुच्छ और पशुवत् बनाती है। प्रेम मनुष्य को त्याग, उदारता और बन्धुत्व का पाठ पढ़ाता है। त्याग ही प्रेम की कसौटी है। जो प्रेम जितना अधिक गहरा होता है, उसमें त्याग की भावना भी उतनी गहरी और निर्बन्ध होती है। प्रेम मनुष्य को मनुष्य बनाता है और उसे ऊपर उठाता है। और काम-प्रवृत्ति मनुष्य को हमेशा पाशविक धरातल पर ही खड़ा रखती है। काम-प्रवृत्ति तो मूल रूप में सदैव अपने उसी आदि रूप में मौजूद रहती है। पर मनुष्य के काम-संबंध सामाजिक, आर्थिक परिस्थितियों के अनुरूप अपना रूप परिवर्तित करते रहते हैं। प्रेम का सम्बन्ध काम-प्रवृत्ति से इतना नहीं जितना समाज में प्रचलित काम सम्बन्धों से है। समाज के काम-सम्बन्ध तात्कालिक समाज की प्रेम-भावना को जाने-अनजाने अवश्य प्रभावित करते हैं। क्योंकि इन सम्बन्धों में परम्परा, नैतिक मान्यता, नियन्त्रण और सम्पर्क निहित रहता है। मनुष्य में मूल अन्तस-प्रवृत्तियों का आदिम स्वरूप तो अधिकांशतया वही रहता है पर उनकी बाह्य व्यंजना का समाज के द्वारा संस्कार होता रहता है।

ऊजळी के नारी-हृदय की प्रेम-भावना या उसकी विरह-वेदना केवल पुरुष देह की ही कामना नहीं करती बल्कि उसकी वेदना में काम की भूख के बजाय प्रेम की तृष्णा अधिक है। उसका यौवन काम को अस्वीकार नहीं करता बल्कि स्पष्ट शब्दों में उसकी चाहना भी करता है, परन्तु उसकी वह चाहना केवल प्रेमी के द्वारा ही सम्पन्न होना चाहती है। ऊजळी के यौन-प्रेम की खातिर निरा पुरुष होना ही काफी नहीं है प्रेमी होना उसकी पहली शर्त्त है। उसका नारी-हृदय जेठवा के अन्यथा किसी को भी पुरुष-रूप में स्वीकार नहीं करना चाहता

जोबन पूरे जोर, मांणीगर मिलियौ नहीं,

सारै जग में सोर, जोगण हुयगी जेठवा।

यहाँ एक बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न उठ खड़ा होता है। वह यह कि ऊजळी की इस विरह-व्यथा, उसकी विरक्ति और उसके त्याग में प्रेम का दखल अधिक है या तात्कालिक अवस्था की सामाजिक परवशता। उसका प्रेम-प्रदर्शन उसके स्वतंत्र मन की स्वतंत्र अभिव्यक्ति है या रूढ़िबद्ध मान्यताओं में जकड़े हुए उसके नारी-हृदय का मूक रोदन। जिन धर्म-शास्त्रों ने सदियों से डंके की चोट स्त्री स्वातन्त्र्यमर्हति’, ‘अस्वतंत्रता स्त्री पुरुष प्रधाना’ और ‘अस्वतंत्रा धर्में स्त्री’ का निरंतर प्रतिपादन किया है, क्या उसीकी अचेतन स्वीकृति ऊजळी की चेतना में मुखर तो नहीं हो उठी? क्या धर्म-शास्त्रों द्वारा प्रतिपादित सामाजिक परवशता ही को ऊजळी ने अपनी एकमात्र स्वतंत्रता नहीं मान लिया? यह ऊजळी के स्वच्छन्द मन की निर्बन्ध आत्माभिव्यक्ति है या शास्त्रकारों द्वारा प्रताड़ित नारी पर निरंतर विजय का निर्भीक उद्घोष?

इस प्रश्न का उचित समाधान पुरुष-प्रधान समाज में आज दिन भी नहीं हो पाया है। नारी की आर्थिक परवशता और उसकी स्वतंत्रता को विच्छिन्न करके देखना असंभव नहीं तो मुश्किल अवश्य है। आर्थिक रूप से पूर्णतया स्वतंत्र हुए बिना नारी अपनी स्वतन्त्रता को प्राप्त नहीं कर सकती, यह निविवाद रूप से सही है। और इसके साथ-साथ यह भी असंदिग्ध रूप से सत्य है कि आर्थिक बन्धनों से सर्वथा मुक्ति पा जाने के बाद दाम्पत्य जीवन का एक मात्र सूत्र केवल प्रेम ही रहेगा। तब विवाह के लिए प्रेम के सिवाय और कोई आधार मान्य नहीं होगा।

नारी के शोषित जीवन के साथ उसका शोषित प्रेम तभी पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्त करेगा जब वह घर की चहार-दीवारी को लाँघ कर समाज के मुक्त आँगन में प्रवेश करेगी। उसके समस्त कार्यों को, पारिवारिक उपयोगिता के संकीर्ण हीन महत्व से ऊपर उठा कर जब उन्हें सामाजिक उपयोगिता का सर्वोपरि महत्व प्राप्त होगा, तभी उसका चिर-बन्दी जीवन वास्तविक मुक्ति का अनुभव करेगा।

इस मुक्ति के लिए नारी को पुरुष का अनुकरण करने की आवश्यकता नहीं होगी। समानता कार्यों की समानता होकर आर्थिक सामाजिक समानता होगी, तब महत्व कार्यों के बँटवारे का इतना रह कर उनकी सामाजिक मान्यता का अधिक रहेगा। नारी जब अपनी उस स्वतन्त्र स्थिति को प्राप्त कर लेगी तब एकनिष्ठता का दावा पुरुष के हिस्से में भी उसी अनुपात से आयेगा जितना नारी के लिए है। दाम्पत्य जीवन में बँधने की सामाजिक इकाई के लिए किसी भी बाह्य शक्ति का दखल होकर केवल अंतर्मन के प्रेम का दावा ही मान्य और नैतिक समझा जायेगा। केवल प्रेम ही के बल पर तब ऊजळी अपने प्रेमी जेठवा को सहज ही प्राप्त कर सकेगी। समाज की कोई भी बाहरी ताकत उसके प्रेम-पथ में बाधा बन कर खड़ी नहीं होगी। प्रेमी के वियोग में तब किसी को चंदन-माला हाथ में लेकर जोगन बनने की आवश्यकता नहीं होगी। सती बन कर जलने की कल्पना भी तब सम्भव नहीं होगी। प्रेम की नैतिकता ही विवाह की नैतिकता का एकमात्र प्रमाण होगी।

दुनिया के सभी धर्म-शास्त्रों में नारी के विश्वासघाती चरित्र को लेकर जितनी भी शास्त्रसम्मत उक्तियाँ प्रचारित की गई हैं वे नारी-चरित्र की वास्तविकता होकर पुरुष के अपने ही स्वभाव की हीन और विकृत मनोदशा का प्रतिबिंब हैं। नारी पुरुष से कहीं अधिक स्वभाव में एकनिष्ठ होती है। वह शास्त्रों के बल पर अंगीकार किये हुए पति के साथ विश्वासघात कर सकती है, किन्तु अपने मन से वरण किये प्रेमी के साथ कभी धोखा नहीं कर सकती।

स्रोत
  • पोथी : साहित्य और समाज ,
  • सिरजक : विजयदान देथा ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी शोध-संस्थान चोपासनी, जोधपुर ,
  • संस्करण : प्रथम संस्करण
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