रणथम्भौर राजस्थान का एक प्राचीन एवं प्रमुख गिरि दुर्ग है। सवाई माधोपुर से लगभग 6 मील दूर रणथम्भौर अरावली पर्वत श्रृंखलाओं से घिरा हुआ है। रणथम्भौर दुर्ग के निर्माताओं के बारे में प्रामाणिक जानकारी का अभाव है। ऐसा माना जाता है कि इस दुर्ग का निर्माण आठवीं शताब्दी ई. के लगभग अजमेर के चौहान शासकों ने किया। पृथ्वीराज तृतीय की तराइन के द्वितीय युद्ध के बाद रणथम्भौर पर कभी गुलामवंशीय सुलतानों का तो कभी चौहानों का राज रहा। विषम आकृति वाले इस दुर्ग की परिधि में पर्वत श्रेणियों का घेरा है, जिनके बीच तमाम नाले और खाइयाँ हैं, जहाँ का पानी चंबल में जाकर मिलता है। रणथम्भौर का वास्तविक नाम रन्तःपुर है अर्थात् ‘रण की घाटी में स्थित नगर’। हम्मीरायण ग्रन्थ में हमें इस इस दुर्ग के बारे में काफ़ी जानकारी मिलती है। अपनी सुरक्षा व्यवस्था, विशिष्ट स्थिति और सुदृढ़ संरचना और बीहड़ के कारण दुर्ग एक अजेय दुर्ग समझा जाता था। यह दुर्ग बरसों तमाम शासकों की महत्वकांक्षा बना रहा। साम्राज्य विस्तार का कोई भी स्वप्न रणथम्भौर पर अपने अधिकार में लिए बिना अधूरा समझा जाता था। उसके पीछे जो बड़े कारण थे;उनमें एक बड़ा कारण यह भी कि दिल्ली से उसकी निकटता, मालवा और मेवाड़ के मध्य की उसकी अवस्थिति बड़ी महतवपूर्ण थी। दुर्ग से सम्बन्धित प्रमुख ऐतिहासिक स्थानों में सूरजपोल, गणेशपोल, नौलखा दरवाजा, हाथीपोल और त्रिपोलिया प्रमुख प्रवेश द्वार हैं।
रानी महल, हम्मीर की कचहरी व इसके अलावा जौरां-भौरां, 32 खम्भों की छतरी, हम्मीर महल, सुपारी महल, बादल महल, रनिहाड़ तालाब, पीर सदरूद्दीन की दरगाह, लक्ष्मीनारायण मंदिर, जैन मंदिर तथा समूचे देश में प्रसिद्ध गणेशजी का मंदिर दुर्ग के प्रमुख स्थान हैं। रणथम्भौर में राव हम्मीर देव चौहान का शासन काल प्रसिद्ध रहा। साम्राज्यवादी महत्त्वाकांक्षा के चलते इस दुर्ग पर अलाउद्दीन ने 1300 ई. में रणथम्भौर पर एक विशाल सेना के साथ आक्रमण किया। हम्मीरायण में हमें इस घेरे का वर्णन मिलता है। हम्मीर ने इस आक्रमण का मुकाबला किया। 1301 में इस दुर्ग पर अलाउद्दीन का अधिकार हो गया, इसी समय रणथम्भौर का प्रसिद्ध साका हुआ। रणथम्भौर और हम्मीर को लेकर तमाम लोगों ने रचनाएँ संभव की; नयचन्द्र सूरी कृत हम्मीर महाकाव्य, व्यास भाँडउ रचित हम्मीरायण, जोधराज और महेश विरचित हम्मीररासो तथा चन्द्रशेखर कृत हम्मीर हठ प्रमुख उनमें उल्लेखनीय हैं।
इसी दुर्ग को लेकर राणा कुम्भा और मालवा के सुलतान महमूद खिलजी के मध्य काफी संघर्ष चला। उपरान्त इस संघर्ष यह दुर्ग मेवाड़ के राणा साँगा के पास रहा। राणा सांगा ने अपनी हाड़ी रानी कर्मवती और उसके पुत्रों युवराज विक्रमादित्य और उदयसिंह को प्रदान किया। प्रसिद्ध खानवा के युद्ध में घायल हुए राणा साँगा को रणथम्भौर लाया गया। यह दुर्ग समय-समय पर सुलतान बहादुरशाह, अकबर, शेरशाह सूरी, आदिलखाँ, राव सुरजन हाड़ा आदि के अधिकार रहा। अकबर के शासनकाल में रणथम्भौर जगन्नाथ कछवाहा की जागीर में रहा तथा शाहजहाँ ने इसे अपने विश्वस्त विठ्ठलदास गौड़ को सौंपा।
रणथम्भौर दुर्ग और हम्मीर की हठधर्मिता को लेकर लोक में यह दोहा बहुत प्रसिद्ध है।
सिंघ गमन, सत्पुरुष वच, कदली फलै इक बार।
तिरिया तेल, हम्मीर हठ, चढ़ै न दूजी बार॥