राजस्थान में हाड़ौती का इलाक़ा हमेशा महत्वपूर्ण रहा है। इसी इलाक़े की चम्बल नदी के किनारे पर स्थित कोटा का किला हाड़ा राजपूतों की अनेक गाथाओं और रोमांचक प्रसंगों का साक्षी रहा है। किले की प्राचीर के सुदृढ़ता के कारण यह क़िला दुर्जेय किलों में माना जाता था। कोटा के किले का निर्माण बूँदी के हाड़ा शासक ने किया था, इससे पहले जैतसिंह ने इस क्षेत्र के कोटिया भील पर विजय प्राप्त की थी। कोटिया के नाम से ही कोटा का नाम पड़ा। यह किला लगभग 60-70 फीट ऊँची प्राचीर से निर्मित है और चारोंऔर विशाल जलराशि वाली चम्बल नदी एक अलग ढंग से सुरक्षा प्रदान करती है। किले पर मुगल शासकों का भी राज रहा। बाद में बूँदी और कोटा राज्यों के भी सम्बन्ध बिगड़ गये। उनके मध्य सौहार्द का स्थान वैमनस्य और शत्रुता ने ले लिया।

शाहजहाँ के समय ही बूंदी से अलग कोटा के स्वतंत्र राज्य की स्थापना हुई थी। कोटा के स्वतंत्र राज्य के संस्थापक माधवसिंह ने यहाँ सुदृढ़ प्राचीरों और प्रवेश द्वारों वाले कोटा दुर्ग का निर्माण करवाया। किले के भव्य राजप्रासाद हिन्दू स्थापत्य कला के श्रेष्ठ उदाहरण हैं। 1761 ई. में जयपुर और कोटा के बीच भटवाड़ा का प्रसिद्ध युद्ध लड़ा गया जिसमें कोटा ने जयपुर को पराजित कर दिया। इस तरह इस किले के इतिहास के परिसर में तमाम शासकों का संघर्ष रहा; औरंगजेब के बेटे, मरहठे आदि उनमें शमिल रहे। कोटा किले को लेकर अंग्रेजों की भी महत्वकांक्षा बनी रही। कोटा का किला वीरता और शौर्य की अनेक घटनाओं का साक्षी रहा है।

कोटा का राजप्रासाद बहुत कलात्मक और भव्य है। अपनी अद्भुत बनावट और विशेष रूप से भित्तिचित्रों के कारण कोटा का क़िला बहुत प्रसिद्ध है। धार्मिक और लौकिक शैली के साथ-साथ झाला हवेली में बने भित्ति चित्रों का तो क्या कहना! किले के राजमहलों में मुख्यतः अर्जुन महल, छतरमहल, बड़ा महल, जैतसिंह महल, माधवसिंह महल, बड़ा महल, कंवरपदा महल, छतर महल, भीम महल, दीवान-ए-आम, लक्ष्मी भण्डार आदि हैं जो इसके उत्कृष्ट स्वरूप का प्रतिनिधित्व करते हैं। यहाँ कांच की जड़ाई और मीनाकारी का बहुत आकर्षक काम हुआ है। कोटा के राजमहलों में सभी विषयों के चित्र बने हैं। इनमें शिकार के भित्तिचित्रों की प्रधानता है। किले में स्थापित महाराजा माधवसिंह म्यूजियम कला और संस्कृति का बहुमूल्य खजाना है। कोटा के किले में इतिहास, कला और संस्कृति की त्रिवेणी का अद्भुत संगम हुआ है।

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