मध्यकालीन राजस्थान में सामाजिक जीवन की परंपराओं के रूप में कुछेक ऐसी प्रथाएं प्रचलित थी जिन्हें सामाजिक बुराइयां माना जा सकता है। बाद में पुनर्जागरण के समय इन प्रथाओं पर अंकुश लगा। इनमें से कई प्रथाओं को देश के आजाद होने के बाद कानूनन प्रतिबंधित किया गया। इससे राजस्थानी समाज में व्याप्त बुराइयों का उन्मूलन हुआ।
सती प्रथा
राजस्थान में सती प्रथा का प्रचलन राजपूत जाति में सबसे अधिक था। अपने पति की मृत्यु के उपरांत उसकी जलती चिता पर बैठकर उसकी पत्नी अपने प्राण त्याग देती थी। रियासती दौर में राजस्थान में सबसे पहले बूंदी राज्य में सन 1822 में इस प्रथा पर रोक लगाई गई पर राजस्थान के अनेक भागों में यह फिर भी जारी रही। 1846 में जयपुर राज्य में भी सती प्रथा को प्रतिबंधित किया गया। समाज सुधारक राजा राममोहन राय के प्रयासों के कारण अंग्रेज सरकार ने सन 1929 में सती प्रथा को गैर कानूनी घोषित कर दिया। इसके बाद राज्य की सभी रियासतों में इस प्रथा पर रोक लगा दी गई। देश की स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद राजस्थान राज्य का गठन हुआ और यहां की सरकार ने सती प्रथा उन्मूलन अधिनियम बनाकर इसे पूर्णतया प्रतिबंधित कर दिया।
जौहर
सतीप्रथा के समान ही एक अन्य प्रथा मध्यकालीन राजस्थान में प्रचलित थी जिसे जौहर कहा जाता था। इस प्रथा के अनुसार स्त्रियां ऐसी स्थिति में सामूहिक रूप से अग्नि में कूदकर अपने प्राण होम देती थी जब यह आशा तनिक भी नहीं रहती थी कि उनके पति अब युद्धस्थल से जीवित वापिस नहीं आएंगे। शत्रुओं के विजयी होने के बाद स्त्री वर्ग के साथ होने वाले अन्याय से बचने के लिए यह प्रथा प्रचलित हुई थी। रणथंभोर किले में हम्मीर के समय पहला जौहर हुआ था। मेवाड़ शासक रतनसिंह की पत्नी रानी पद्मिनी ने भी अलाउद्दीन खिलजी के हमले के समय सैंकड़ों स्त्रियों के साथ जौहर किया था। इसके अलावा राजस्थान के कई अन्य दुर्गों व किलों में सामूहिक जौहर हुए थे। बाद में अंग्रेजी शासन के अधीन आने के बाद राजस्थान की रियासतों के राजनीतिक हालातों में स्थिरता आ गई और जौहर करने जैसी स्थितियां अट्ठारवीं शताब्दी के बाद पैदा नहीं हुयी।
कन्यावध
राजस्थान के कुछ वर्गों में कन्या वध की प्रथा मध्ययुग में प्रचलित थी। विवाह आदि के खर्चे से बचने के लिए कन्या का जन्म होते ही उसे अफीम चटाकर या अन्य तरीकों से मार दिया जाता था। यह कुप्रथा वस्तुत: अपने कुल की प्रतिष्ठा, निर्धनता और अंधविश्वास के कारण बड़े पैमाने पर प्रचलन पर थी। बाद में समाज सुधारकों के दबाव के कारण अंग्रेज सरकार ने देशी रियासतों को कन्या वध पर रोक लगाने को कहा और इस आशय के आदेश पारित किए गए।
त्याग प्रथा
राजस्थान में पुराने समय में त्याग प्रथा भी व्यापक रूप से प्रचलित रही थी। यहां के राजपूत समुदाय में विवाह और अन्य मांगलिक अवसरों पर चारण, भाट, ढोली आदि जातियों के लोगों को दान-दक्षिणा दी जाती थी, जिसे त्याग कहा जाता था। इस प्रथा के कारण राजपूतों की आर्थिक दशा दयनीय होती गई और इसके कारण कन्या वध भी बढ़ता गया। बाद में स्थितियां बिगड़ती देख जोधपुर रियासत में त्याग की राशि को निश्चित कर दिया गया।
डायन प्रथा (डाकण प्रथा)
राजस्थान के ग्रामीण एवं आदिवासी क्षेत्रों में डायन प्रथा बड़े पैमाने पर प्रचलन में रही थी। इस बारे में समाज में अनेक तरह के मिथक एवं धारणाएं व्याप्त थी। किसी भी स्त्री को डायन धोषित करके उस पर अनेक अत्याचार किए जाते थे। लोगों की धारणा थी की डायन शमशान भूमि में जाकर छोटे बच्चों के शव निकालकर उन्हें खा जाती है। राजस्थान के सभी भागों में डायन से जुड़े अंधविश्वास प्रचलित थे पर यह प्रथा आदिवासी क्षेत्र मेवाड़ और वागड़ अंचल में जोरों पर रही थी। आजकल भी यदा-कदा उस क्षेत्र से डायन प्रथा से जुड़ी खबरें सुनने को मिलती है। सन 1853 में उदयपुर महाराणा स्वरूप सिंह ने डायन प्रथा पर प्रतिबंध लगाया था। आजादी के बाद इस प्रथा को कानूनन प्रतिबंधित कर दिया गया है।
घरेलू दास प्रथा
इस प्रथा का चलन उन्नीसवीं शताब्दी तक राजपूत व जमींदारों में था। सन 1832 में लार्ड विलियम बैंटिक ने दास प्रथा पर रोक लगा दी। इसके बाद कोटा, बूंदी और जोधपुर रियासतों के शासकों ने घरेलू दास प्रथा पर आदेश पारित करके रोक लगाई। देश के स्वाधीन होने के बाद इस प्रथा की पूर्णतया समाप्ति हो गई।
बंधुआ मजदूर (सागड़ी) प्रथा
राजस्थान में घरेलू दास प्रथा का एक अन्य रूप ‘सागड़ी’ प्रथा के रूप में प्रचलित रहा था। इस प्रथा में घरेलू दास पीढ़ी दर पीढ़ी शासक, सामंत, साहूकार, जमींदार आदि के यहां कार्य करते थे और इनसे कभी भी मुक्त नहीं हो पाते थे। राजस्थान सरकार ने सन 1961 में सागड़ी निवारण अधिनियम पारित करके इस प्रथा पर कानूनन रोक लगा दी है।
बाल विवाह
राजस्थान में 19 वीं शताब्दी तक बाल-विवाह की कुप्रथा बड़े पैमाने पर प्रचलित थी। यहां के सभी जाति-समुदायों में बाल विवाह की प्रथा थी। आखातीज (अक्षय तृतीया) के दिन छोटे-छोटे बच्चों के विवाह कर दिए जाते थे। वर्तमान में लड़के के विवाह की आयु 21 वर्ष और लड़की के विवाह की आयु 18 वर्ष निर्धारित की गई है।