अगणित कष्ट अनेक अज्ञान न कीजिये।
नाम बिना नहिं ठाम छलावै छीजिये॥
मृग तृष्णा का नीर सु मरकट आगि रे।
रज्जब रीझा सांच झूठ दे त्यागि रे॥